Friday, March 24, 2017

रंग चिंतन में समाहित होता है उसका अर्थ संयोजन -मंजुल भारद्वाज (रंग चिन्तक

भाग -१
रंग चिंतन में समाहित होता है उसका अर्थ संयोजन
-मंजुल भारद्वाज (रंग चिन्तक)
भारत देश में भारत सरकार सबसे धनी और सबसे ताकतवर है. उसका अर्थ तंत्र हरेक नागरिक से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर से चलता है. यानी सबसे ताकतवर भी नागरिक से मांगकर जीता है. जिसके लिए सरकार वही ‘अर्थ’ का जिम्मेदार . ये सरल आर्थिक नियम और फार्मूला है. हाँ इस सरल बात की व्यवहारिकता की कई उलझन और पेंच है . सरकार किसको कितना  पैसा देती है ..क्यों देती है ...किसलिए देती है ... गरीब को कम ..अमीर को ज्यादा .. हाँ ये व्यवहार गत विवादित पक्ष हैं ..पर ये प्राथमिकताओं और राजनैतिक पक्षधरता का आयाम है. पर ‘अर्थ’ कहाँ से और कैसे संचित हो उस फार्मूले की सरलता जस की तस और स्पष्ट है. सबसे अमीर भारत सरकार को एक गरीबी रेखा से नीचे जीने वाला नागरिक भी उसकी तिजोरी भरता है ..एक माचिस या सुई खरीदने पर भी सरकार को टैक्स देता है .. अमीरों की बात तो सर्वविदित है की वो कैसे सरकार को .... चलाते और लूटते हैं ...
जनहित , जन सरोकार तो जनता का आर्थिक सहयोग अनिवार्य है .. टिकाऊ और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए ! यही सरल बात कलाकारों को समझनी है और यही वैश्विक अर्थ चिंतन है . पर विकास और विकसित होने के पायदान भ्रमित करते हैं मसलन विकसित यूरोपीय मॉडल जहाँ ‘कला और उससे जुडी संस्थाएं वित्त पोषित हैं” और उनका यहीं मॉडल औपनिवेशिक देशों ने अपनाया है और अपने यहाँ उनकी तर्ज़ पर ‘कला प्रशिक्षण संस्थान खोले’ उनके ही चिंतन को अपनाया यानी विकासशील देश भले ही राजनैतिक रूप से आज़ाद हों पर विकास के मापदंड और सांस्कृतिक चिंतन साम्राज्यवादी देशों  का है . इस ‘औपनिवेशिक चिंतन’ को यहाँ के तथाकथित पेशेवर कलाकार पूरी अंधभक्ति से लागू करते हैं और मॉडर्न कहलाते हैं. दरअसल ये सांस्कृतिक गुलाम हैं और अपने देश की सांस्कृतिक चेतना और विरासत से दूर एक ‘औपनिवेशिक चिंतन’ की नकल करते हुए खप रहे हैं और ‘कला’ के लिए संसाधन नहीं हैं का रोना रो रहे हैं.
  ‘औपनिवेशिक चिंतन’ वाले रंग गृह,उनकी तकनीक,उनके नाटक और भारतीय बाज़ार और दर्शक , मध्यमवर्ग जो अमेरिका  और यूरोप की तरह विकसित होना चाहता है और साथ ही साथ ग्लोबल वार्मिंग पर हाय हाय भी कर रहा है. यानी कुल मिलकर सब मुखौटे लगाए हुए ..कलाकार भी और दर्शक भी .. और दोनो एक दूसरे को ग्राहक और खरीददार समझते हैं. कलाकार सोचता है मैं क्या बेचूं और कितना कमाऊं और दर्शक सोचता है मुझे क्या मिल रहा है, मेरा कितना मनोरंजन हो रहा है .. यानी इनके लिए ‘कला का मतलब बेचना और खरीदना’ प्रॉफिट एंड लोस ! इससे जन्मा ‘कला कला के लिए’ वाला अवसरवादी विचार यानी कुल मिलाकर एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ कलाकारों का जो ये मानने लगा मैं कलाकार हूँ ..मेरा जनता के सरोकारों से क्या वास्ता ... ऐसे ही कलाकारों को सत्ता ने पोषित किया और ऐसे ही कलाकारों को अपने संस्थानों में प्रशिक्षित किया और ऐसे बढई बना दिए जिनके पास हुनर तो है पर ‘चिंतन’ नहीं. और कलाकारों की ऐसी  कौम ने ये झूठ और भ्रम फैलाया की नाटक से रंगकर्मी जिंदा नहीं रह सकते और नाटक करने और उसमें ज़िन्दगी बसर करने के लिए सरकारी , ग़ैर सरकारी वित्त पोषण और अनुदान के बिना रंगकर्म ‘असम्भव’ है . 
ऐसे अवसरवादी और भ्रामक चक्रव्यूह को “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत ने भेदा. जनता के सामने अपने रंग चिन्तन को रखा और उनके सरोकारों से अपनी कला को सराबोर किया .
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” रंग सिद्धांत के अनुसार दर्शक सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है और पाश्चात्य चिंतन के निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित रंगकर्म की बजाय दर्शक और लेखक केन्द्रित रंगकर्म को स्थापित किया ...”क्योंकि दर्शक प्रथम, सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.”
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदाहै और दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
इस नाट्य दर्शन को क्रियान्वित करने के लिए दर्शक की आर्थिक सहभागिता का सूत्रपात किया और ‘दर्शक’ को एक ग्राहक समझने की बजाए साथी और सरोकारी रंगकर्मी समझा ! जिसके परिणाम स्वरूप पाश्चात्य नकल वाले महंगे ‘रंग ग्रहों , नाटक को लाइट एंड साउंड शो बनाने वाली तकनीक , महगें सेट और ग़ैर ज़रूरी विज्ञापन के फिजूल खर्चे से निजात मिली ... निरर्थक पैतरों से बचे और सरकारी या निजी वित्त पोषित कला की बजाय  सार्थक और सरोकारी ‘कला साधना’ का मौक़ा मिला और आज भी निरंतर और अविरल जारी है . दृष्टि स्पष्ट हो तो सृष्टि नेक और सुदृढ़ होती है... और भ्रांतियों से बचे रहते हैं ... इससे बहुत समय बचता है ‘रंग साधना के लिए’ !

भाग -२

रंगकर्म और साधन सम्पन्नता
-    मंजुल भारद्वाज
रंगकर्म और साधन सम्पन्नता – बड़ी आकर्षक और दिल को छूने वाली बात है हर रंगकर्मी का ख्वाब होता है की उसके रंगकर्म के लिए सभी संसाधन मौजूद हों चाहे वो “राज्य व्यवस्था” उपलब्ध कराए या समाज व्यवस्था उपलब्ध  कराए...  बड़ी अच्छी बात है ..और दिल की बात है और दिल की बात हर व्यक्ति को पसंद आती है ... पर क्या रंगकर्म केवल लोक लुभावन दिल को छूने भर की कला है .. नहीं रंगकर्म दिल को छूते हुए दिमाग को झक झोरने और चिंतन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली , मानसिक रूढ़ियों को तोड़ने वाली कला है .. यानी इंसान को इंसान बनाये रखने वाली विधा है ..एक ऐसे “व्यक्ति और समाज” का निर्माण करने वाली विधा जो न्याय संगत और शोषण मुक्त हो, जो मानवीय मूल्यों , शांति, सौहार्द और समानता वाली व्यवस्था का निर्माण करे .
जब “व्यवस्था” पर प्रश्न उठाया जाता है तब बात गड़बड़ होनी शुरू होती है ..जब तक भोगवादी “रंगकर्म” करते रहो तो संसाधन उपलब्ध होते रहते हैं पर जब “व्यवस्था” पर प्रश्न उठाने वाला  तर्क संगत “ रंगकर्म” अपने पावं पसारने लगता है संसाधन गायब हो जाते हैं .
एक विश्लेषण करें की जिस देश में “राज्य व्यवस्था” रंगकर्म को संसाधन उपलब्ध कराती है क्या वहाँ  प्रगतिशील रंगकर्म होता है क्या ? ..जैसे अमेरिका विश्व का सबसे अमीर देश , विकसित देश ..जहाँ बुनियादी सुविधाएं हैं वहां किन नाटककारों  ने और कितने रंगकर्मियों ने “ नर संहार  करने वाले हथियार बनाने और बेचने” वाली अपने देश की नीति का विरोध किया हो क्योंकि अमेरिका की मजबूत अर्थ व्यवस्था की रीढ़ है हथियार बेचना और बनाना . कितना बेमेल है ना सब, युद्ध में इंसान और इंसानियत को मारो और शांति का पाठ पढाओ और बहस करो हम “शांति और इंसानियत” को  बचाने के लिए युद्ध करते हैं .
दूसरा उदाहरण लें ब्रिटेन ... हँसी आई ना रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट ... इससे गुरु ज्ञान लेने वाले छात्रों ने अपने देश की शोषण नीति या साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ कितना और कितनी बार  ‘रंग आन्दोलन” किया . हमारे देश में ब्रेश्ट का नाम सम्मान से लिया जाता है लेकिन उनके  ही देश में रंगकर्म के सारे संसाधन होते हुए हाशिये पर फैंका हुआ है . “राज्य व्यवस्था” पोषित सांस्कृतिक नीति वाली सोवियत सरकार क्यों ढह गयी ..  सोवियत – भारत  सांस्कृतिक आदान प्रदान जिससे हमारे यहाँ अनेक “जन रंगकर्मी” पैदा हुए क्यों निरर्थक हो गयी ... ये सवाल  मेरे मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रहे हैं और इनका जवाब मेरे पास है वो ये की “रूप यानी फॉर्म” को आगे बढ़ाने वाली  रंग गतिविधियाँ संसाधनों से लबरेज़ रहेंगी और “प्रश्न उठाने वाला और व्यवस्था” को चुनौती देने वाला रंगकर्म ,रंगकर्मी , रंग आन्दोलन या रंग नीति संसाधन विहीन रहेगी ..क्योंकि ये चेतना का रंगकर्म है जो संसाधनों से नहीं प्रतिबद्धता यानी जूनून से चलता है  !
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