Friday, October 14, 2016

“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य सिद्धांत पर आधारित लिखे और खेले गए नाटकों के बारे में- भाग - 4.. आज का नाटक है “नपुंसक”

नाटक – नपुंसक एक सामाजिक एवम राजनैतिक व्यंग है. समाज की विषमता और असमानता पर गहरा प्रहार है . पितृसत्तात्मक समाज में तृतीय लिंग की सामाजिक अस्वीकार्यता पर कटाक्ष करते हुए तृतीय लिंगी जीवन के दुःख , दर्द और पीड़ा को उजागर कर मनुष्य में ‘इंसानियत’ का ज़ज्बा जगाता है.
NAPUNSAK:
A socio – political satire through the life of eunuch
प्रथम मंचन – 9 मार्च,1998  
नाटक – नपुंसक मूलतः रंग समीक्षक मित्रों के आग्रह पर लिखा गया . जनसत्ता के मुम्बई संस्करण में कला सम्पादक  राकेश श्रीमाल एक नई ‘रंग मंचीय’ पहल करना चाहते थे जिसके लिए एक नाट्य उत्सव आयोजित किया ‘नट आलाप’. नाटक – ‘नपुंसक’ के मंचन से ‘नट आलाप’ का प्रारम्भ हुआ और नए रंग विमर्श की शुरुआत हुई ! इस नाटक ने  रंग जगत में कई नामी गिरामी लेखकों और निर्देशकों को इस विषय पर नाटक खेलने के लिए प्रेरित किया . कई फिल्में भी बनी ... आज ये नाटक देशभर में विभिन्न रंग मण्डलियों और कलाकारों द्वारा मंचित हो रहा है !

 

नोट - ताजरंग महोत्सव में नाटक नपुंसक का मंचन करेगी इप्टा

चाईबासा : भारतीय जननाट्य संघ चाईबासा शाखा, नटरांजलि आगरा की ओर से आयोजित ताजरंग महोत्सव 2016 में अपनी बहुचर्चित नाटक नपुंसक का मंचन करेगी। विदित हो की मंजुल भारद्वाज की ओर से लिखित यह नाटक किन्नरों के अपने दर्द को उभारकर दर्शकों को अहसास कराने में सक्षम है। नाटक के जरिए समाज में मरते इंसानियत और व्याप्त बुराईयों पर एक व्यंग्यात्मक कटाक्ष किया गया है। जो समाज में मुखौटों के पीछे छुपे उन चेहरों को उजागर करता है जो सामाजिक संरचना का खोखला ढांचा तैयार करते हैं। निश्चित तौर पर इस नाटक के जरिए इप्टा चाईबासा के रंगकर्मी एक और अभेद्य दुर्ग को ढहाने का प्रयास ताजरंग महोत्सव में करेंगे।

Publish Date:Mon, 08 Feb 2016 12:45 AM (IST) | Updated Date:Mon, 08 Feb 2016 12:45 AM (IST) – जागरण

 












उम्मीद है आप सब को रंग साधना के यह पड़ाव नई रंग प्रेरणा दे पाएं...
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थिएटर ऑफ रेलेवेंसनाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत के अनुसार रंगकर्म निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए कला कला के लिएके चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने कला कला के लिएवाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और दर्शकको जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !

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