Monday, December 30, 2013

भारतीय रंगमंच और मंजुल भारद्वाज



-          धनंजय कुमार
पारम्परिक रंगमंच लगातार अपना जोश और लक्ष्य खोता जा रहा है. रंगमंच अब या तो शौकिया हो रहा है या सिनेमा-टेलीविजन में अभिनय करियर के लिए सीढ़ी के तौर पर या फिर एक खास किस्म की ज़िद की ख़ातिर. लेकिन यह तय है कि रंगमंच लगातार अर्थ प्रधान होते जा रहे युग के साथ उस धमक और चहक के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा है, जिस दूरदृष्टि औरशिद्दत के साथ के रंगमंच के 60-70 के पुरोधाओं ने इसे अपने जीने के अन्दाज़ में ढाला था. अब कहाँ चूक हुई इस पर नज़र फिर कभी, लेकिन इस बीच रंगमंच की दुनिया में "थिएटर ऑफ रेलेवेंस" नाट्यविचार के साथ मंजुल भारद्वाज का आना, रंगमंच के क्षेत्र में नए और अपार सम्भावनाओं से भरे उत्साह का संकेत देता है.मंजुल का थिएटर रंगमंच को पुनः जीवन के केन्द्र में स्थापित करता प्रतीत होता है और मंजुल रंगकर्म प्रेमियों के बीच मार्गदर्शक के तौर पर प्रकट होते हैं.



मंजुल भारद्वाज अभी पिछले ही महीने दो महीने के टूर को समाप्त कर यूरोप से लौटे हैं. उनके साथ उनका नाट्यदल भी था. 26 अगस्त से लेकर 29 अक्टूबर 2013 के बीच उनकी टीम ने जर्मनी, सिल्वेनिया और ऑस्ट्रिया के विभिन्न शहरों में ड्रॉप बाय ड्रॉप:वाटरनामक नाटक की 26 प्रस्तुतियाँ कीं. साथ ही, मंजुल ने थिएटर के प्रति अवेयरनेस बढ़ाने के लक्ष्य को लेकर थिएटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य दर्शन की अवधारणा और प्रक्रिया पर आधारित 29 नाट्य कार्यशालाओं का संचालन भी किया, जिसमें 5,000 से ज्यादा यूरोपवासी सहभागी हुए.
रंगमंच के क्षेत्र में हम प्रायः विदेशों से पागलपन की सीमा तक प्रभावित रहे और स्थिति इस हद तक पहुँच गई कि हमारे दर्शक रंगमंच से कट गए, ऎसे में मंजुल भारद्वाज के रंग विचार और रंगकर्म को लेकर विदेशों, खासकर यूरोप में स्वीकृति और सराहना मिलना भारतीय रंगमंच पर नई संभावनाओं को उभारती है.
मंजुल पारम्परिक थिएटर को विस्तार और नया आयाम देकर खास से आम आदमी के थिएटर में परिणत कर देते हैं. उनका थिएटर सिर्फ रंगकर्मियों की खोखली संतुष्टि भर नहीं है, बल्कि रंगकर्मियों और दर्शकों दोनों को कला और मनोरंजन के साथ-साथ जीवन की विशेषताओं और विसंगतियों से जोड़ता है. मसलन, अपने नए नाटक ड्रॉप बाय ड्रॉप:वाटरमें भी वह एक ऎसे मुद्दे को उठाते हैं, जो देश और काल की सीमा लांघ पूरी दुनिया का सबसे ज्वलंत मुद्दा है. इस नाटक में वह पानी को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साज़िश को न सिर्फ बेनकाब करते हैं, बल्कि सरकारों को पानी की निजीकरण -नीति को व्यापक जनहित में वापस लेने पर मजबूर भी करते हैं.
बहरहाल आज जबकि परम्परागत रंगकर्म और रंगकर्मी निराशा और चालाकियों से घिरे हैं, ऎसे में मंजुल भारद्वाज अपने रंगकर्म से रंगक्षेत्र में नई आशाओं और सम्भावनाओं के साथ लगातार आगे बढ़ रहे हैं. उन्हें हमारी शुभकामनाएँ!!

Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta !

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