Saturday, March 30, 2013

प्रख्यात रँगकर्मी मंजुल भारद्वाज का नाटक “गर्भ” प्रतीक है खूबसूरत दुनिया का


आज का समय जो कि अतीत और वर्तमान के सबसे अधिक संकटपूर्ण कालखंडोँ मेँ से एक है प्रख्यात रँगकर्मी मंजुल भारद्वाज के नाटक गर्भ का मंचन चिंतन की नई दिशाओँ को खोजता सफलतम प्रयोग है। 80 मिनिट की अवधि मेँ जैसे 80 बरस को जीता ये नाटक मंजुल की एक अलग ही योग्यता से परिचित कराता है। बहुत ही अद्भुत और सृज़नात्मक । उपभोगतावादी और वैश्विक दृष्टिकोण से बाज़ारवादी माहौल मेँ जबकि  हमारे अन्दर की उर्जा  को ,आंच को , समाज और माहौल का महादानव सोख चुका है और चारोँ ओर नफरत , स्वार्थ , आतंक , भूमंडलीकरण और उदारवाद की आँधी बरपा है  गर्भ नाटक उन परतोँ को उघाडने मेँ कामयाब रहा है जो मानवता को लीलने को तत्पर है।
 नाटक की नायिका अश्विनी नान्देडकर ने तो जैसे अभिनय के नौ रसोँ की प्रस्तुति ही अपनी भंगिमाओँ से की है। समाज के अराजक तत्वोँ,दमघोंटू वातावरण मेँ प्रकृति के उदात्त स्वरूपोँ के दर्शन कराता,आकाशगँगा,सितारे,ग्रह,नक्षत्र,उपग्रह,सूर्य,चाँद,धरती और सागर की बूँद बूँद सुँदरता को उकेरता मानव समाज को एक दिशा देता है नाटक गर्भ.......कि ईश्वर तुम्हारे अँदर है,मँदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे और गिरिजाघरोँ की खाक छानते क्या तुम अपने अँदर के ईश्वर को पह्चान पाये हो? क्या देख पाये हो अपने हाथोँ से सरकते पलोँ को जो तुम्हे जीवन का अर्थ समझा गये हैं ..... मंजुल की  कलम ने कई सवाल उठाए हैँ जवाब उसी मेँ निहित भी हैँ जिन्हे खोजता है मनुष्य जीवन की आपाधापी मेँ .....पर क्या खोज पाता है ?
   गर्भ मेँ सुरक्षित वह भ्रूण जो विकसित हो रहा है एक नियत कालखन्ड मेँ बाहर की दुनिया मेँ पदार्पण करने के लिये लेकिन अभिमन्यु की तरह उसने माँ के गर्भ मेँ ही उन चक्रव्यूहोँ को समझ लिया है जिन्हे ज़िन्दगी भर उसे भेदना है। यही मानव की नियति है।
गर्भ के ज़रिये कई अनकहे बिम्ब तैर आते हैँ मानव की दुनिया मेँ जबकि उन बिम्बोँ को वह ज़िन्दगी भर समझ नही पाता क्योँकि वो शरीर के अन्दर जीता है और इन बिम्बोँ की पुकार है कि शरीर के बाहर जियो तब अपने अस्तित्व को समझ पाओगे। गर्भस्थ मानव अवसरवादी,कायर,कट्टरवादी, संवेदनहीन होकर नहीँ जीना चाह्ता इसलिए वह गर्भ मेँ अपने को सुरक्षित पाता है ।
 मंजुल भारद्वाज ने इस नाटक के ज़रिये एक सन्देश दिया है कि प्रकृति का  दोहन , नदियों का प्रदूषण, जल ,जंगल और ज़मीन पर कब्ज़ा कर अपने अहंकार और ताकत को बढ़ाकर मनुष्य ने एक भस्मासुरी सभ्यता  को जन्म दिया है । हमें समय रहते चेतना होगा वरना हमारा विनाश बहुत निकट है ।

           गर्भ प्रतीकात्मक नाटक है और गर्भ को प्रतीक बनाकर अपनी बात कहने मेँ मंजुल सफल रहे हैँ । नाटक के अन्य कलाकार सायली पावसकर, लवेश सुम्भे और श्रद्धा मोहिते ने भी अपनी भूमिकाओँ के साथ न्याय किया है । प्रख्यात संगीतकार नीला भागवत के संगीत ने नाटक के कथानक और दृश्योँ को असरदार तरीके से संयोजित किया है । गर्भ के सँवाद सुन्दर ,सटीक शब्दोँ के कारण बहुत प्रभावशाली हैँ जिसकी प्रत्येक पँक्ति मेँ मानवता के हाहाकार के पार्श्व से मानवीय मूल्योँ के आशावादी स्वर गूँजते हैँ।



Tuesday, March 5, 2013

Famous Playwrights of India- Manjul Bhardwaj`s play -“गर्भ”-

·     धनंजय कुमार
नुष्य प्रकृति की सबसे उत्तम कृति है.शायद इसीलिए प्रकृति ने जो भी रचा- नदी, पहाड़, झील, झरना, धरती, आसमान, हवा, पानी, फूल, फल, अनाज, औषधि आदि सबपर उसने अपना पहला दावा ठोंका. इतने से भी उसका जी नहीं भरा तो उसने अन्य जीव-जंतुओं, यहाँ तक कि अपने जैसे मनुष्यों पर भी अपना अधिकार जमा लिया. उसे अपने अनुसार सिखाया-पढ़ाया और नचाया. जो उसकी इच्छा से नाचने को तैयार नहीं हुए, उन्हें जबरन नचाया. क्यों ? किसलिए ? अपने सुख के लिए. कभी शान्ति के नाम पर तो कभी क्रान्ति के नाम पर, कभी मार्क्सवाद के नाम पर तो कभी साम्राज्यवाद के नाम पर. यह क्रम आदिकाल से आजतक बदस्तूर जारी है. मगर कौन है जो सुखी है? धरती का वो कौन सा हिस्सा है, जहाँ सुख ही सुख है ? प्रकृति ने पूरी कायनात को सुंदर और सुकून से भरा बनाया. सबपर पहला अधिकार भी हम मनुष्यों ने ही हासिल किया, फिर भी हम मनुष्य खुश क्यों नहीं हैं..? कहने को तो दुनिया के विभिन्न धर्मो और धर्मग्रन्थों में इस प्रश्न का उत्तर है, बावजूद इसके अनादिकाल से अनुत्तरित है तभी तो दुनिया का कोई भी समाज आजतक उस सुख-सुकून को नहीं पा सका है, जिसे पाना हर मनुष्य का जीवन लक्ष्य होता है.
रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज ने इसी गूढ़ प्रश्न के उत्तर को तलाशने की कोशिश की है अपने नवलिखित व निर्देशित नाटक गर्भमें. नाटक की शुरुआत प्रकृति की सुंदर रचनाओं के वर्णन से होती है, मगर जैसे ही नाटक मनुष्यलोक में पहुँचता है, कुंठाओं, तनावों और दुखों से भर जाता है. मनुष्य हर बार सुख-सुकून पाने के उपक्रम रचता है और फिर अपने ही रचे जाल में उलझ जाता है, मकड़ी की भांति. मंजुल ने शब्दों और विचारों का बहुत ही बढ़िया संसार रचा है गर्भके रूप में. नाटक होकर भी यह हमारे अनुभवों और विभिन्न मनोभावों को सजीव कर देता है. हमारी आकांक्षाओं और कुंठाओं को हमारे सामने उपस्थित कर देता है. और एक उम्मीद भरा रास्ता दिखाता है साँस्कृतिक चेतना और साँस्कृतिक क्रांति रूप में.
1 मार्च यानी शुक्रवार को शाम 4:30 बजे मुम्बई के रवीन्द्र नाट्य मंदिर के मिनी थिएटर में एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउन्डेशन की इस नाट्य प्रस्तुति को डेढ़ घंटे तक देखना अविस्मरणीय रहेगा. नाटकों की प्रस्तुतियाँ तो बहुत होती हैं, मगर बहुत कम ही ऐसी होती हैं जो मंच से उतरकर जीवन में समा जाती हैं. गर्भ एक ऐसी ही प्रस्तुति के रूप में हमारे समक्ष प्रकट हुआ. नाटक सिर्फ अभिव्यक्ति का प्रलाप भर या दर्शकों का मनोरंजन करने का मात्र तमाशा भर नहीं है, ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवेंस’ नाट्य सिद्धांत के इस विचार को दर्शकों से जोड़ती है यह प्रस्तुति.
      मुख्य अभिनेत्री अश्विनी का उत्कृष्ट अभिनय नाटक को ऊँचाई प्रदान करता है, यह समझना मुश्किल हो जाता है कि अभिनेत्री नाटक के चरित्र को मंच पर प्रस्तुत कर रही है या अपनी ही मनोदशा, अपने ही अनुभव दर्शकों के साथ बाँट रही है. अश्विनी को सायली पावसकर और लवेश सुम्भे का अच्छा साथ मिला. संगीत का सुन्दर सहयोग नीला भागवत का था.











Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta !

  Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta ! - Kusum Tripathi When I received a call from my old fr...