Saturday, November 5, 2011

मंजुल भारद्वाज से धनंजय कुमार की बातचीत

मंजुल भारद्वाज से धनंजय कुमार की बातचीत
मंजुल भारद्वाज प्रदर्शन कौशल्य से संपन्न अभिनेता, निर्देशक, लेखक, फेसिलिटेटर (उत्प्रेरक )और पहलकर्ता हैं। वह एक स्वप्नद्रष्टा हैं और सपनों को हकीकत में बदलने का कौशल्य व सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। उन्होंने 12 अगस्त 1992 को थियेटर ऑफ रेलेवेंस नामक दर्शन का सूत्रपात किया।
मंजुल भारद्वाज लेखक-निर्देशक के तौर पर अबतक 25 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन कर चुके हैं। उन्होंने भारत के 28 राज्यों और विदेशों में विभिन्न संगठनों, संस्थानों, समूहों आदि के लिए थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य-दर्शनके तहत 3 सौ से अधिक कार्यशालाओं का संचालन किया है।
उन्हें कार्यशालाओं के संचालन के लिए विदेशों से बार-बार आमंत्रित किया जाता है। जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों के विभिन्न नाट्य समूहों, संस्थानों, विद्यालयों, संगठनों के लिए उन्होंने अनगिनत कार्यशालाओं का संचालन किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के बोस्टन की ब्रांडिस यूनिवर्सिटी ने अपने कई छात्रों को थियेटर ऑफ रेलेवेंस की प्रक्रियाओं, सिद्धांतों, अवधारणाओं और मूल आधार को जानने-समझने के लिए भारत भेजा है।
वह संभ्रांत अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर भारत के महानगरों, नगरों, ग्रामीण व आदिवासी अंचलों में थियेटर के लिए पिछले 25 वर्षों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं। उन्होंने 1992 में एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन का गठन किया और तब से निरंतर भारत के थियेटर आंदोलन में मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं।
उन्होंने मुंबई सहित देश के विभिन्न भागों में बाल मजदूरों के साथ कार्य करके यह साबित किया है कि थियेटर बदलाव का माध्यम है। उनके थियेटर प्रदर्शनों और प्रशिक्षणों के द्वारा 50 हजार से अधिक बाल मजदूरों का पुनर्वास किया जा चुका है। उनके द्वारा लिखित नाटक ‘ मेरा बचपन ’ का भारत से लेकर विदेश तक 12 हजार से अधिक बार प्रदर्शन किया जा चुका है।
वह एचआईबी व एड्स पर प्रदर्शन टीम तैयार कर एचआईबी पीड़ित व प्रभावित बच्चों, युवाओं, स्त्रियों तथा पुरुषों के साथ जीने के लिए मजबूत इच्छा शक्ति और सकारात्मक दृष्टिकोण का भाव भरने का कार्य कर रहे हैं।
समाज में सकारात्मक स्वधारणाओं व छवि का विकास कर मंजुल ने स्त्रियों की रूढ़िवादी समझ को तोड़ा है और यौन-शोषण तथा घरेलू हिंसा का शिकार हुई 15 सौ स्त्रियों के पुनर्वसन का सूत्रपात किया है।
लिंग चयन के मुद्दे पर आधारित उनका नाटक ‘लाडली’ इस समय पूरे भारतवर्ष में प्रदर्शन के माध्यम से ‘आइओपनर’ की भूमिका निभा रहा है। वह कठिन परिस्थितियों में रह रहे बच्चों, वंचित स्त्रियों और लड़कियों, किशोरों-किशोरियों, नीति निर्माताओं से लेकर नीति लागू करने वाले सरकारी अधिकारियों के साथ भी काम कर रहे हैं।
मंजुल मानवीय प्रक्रियाओं के (सुविधाप्रदाता) प्रवर्तक और कॉर्पोरेट प्रशिक्षक हैं। उन्होंने कॉर्पोरेट व प्रबंधन विकास में थियेटर ऑफ रेलेवेंस पर आधारित प्रशिक्षण मॉड्यूल विकसित किया है। पिछले एक दशक से अधिक समय से वह थियेटर ऑफ रेलेवेंस पर आधारित प्रशिक्षण मॉड्यूल की खोज कर रहे हैं और प्रतिष्ठित सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की कंपनियों मसलन; ओएनजीसी, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, बीएचईएल, बीपीसीएल, टेहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, रिलायंस एनर्जी आदि में उसका प्रयोग कर रहे हैं।
इनके कॉन्सेप्ट ‘मानव संसाधन में थियेटर ऑफ रेलेवेंस की भूमिका’ का दिल्ली के ईएमपीआई स्कूल के उदय पारीक एचआर लैब में मानव संसाधन प्रक्रिया सिखाने के लिए शैक्षणिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। मंजुल भारत व विदेश के कई संस्थानों, अकादमियों व संगठनों में विजिटिंग फॅकल्टी हैं।
उन्हें उनके नाटक ‘दूर से किसी ने आवाज दी’ के श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। उन्हें महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘सिटिजन्स कॉन्सिल फॉर बेटर टुमौरो’ से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें थियेटर की स्ट्रीट थियेटर श्रेणी में वर्ष 2006-07 में जेण्डर सेंसटिविटी के लिए ‘उन्फपा-लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। उनके रंग आंदोलन को लेकर आइए हम उन्हीं से बात करते हैं।
धनंजयः आपने थियेटर को करियर के तौर पर क्यों चुना?
मंजुल: मानवीय संवेदनाओं को खंगोलना, उधेड़ना, नए सिरे से सोचना, उसको आईना दिखाना, अपनी एक दुनिया बनाना और अपने विचारों को, अपनी कल्पनाशीलता को एक अथाह उडा़न देना, ये सारी खूबियॉं केवल और केवल थियेटर में है। थियेटर अभिव्यक्ति के साथ-साथ सृजन का सबसे सशक्त माध्यम है, इसलिए मैंने थियेटर को चुना।
धनंजयः थियेटर को ही करियर बनाना है, ये आपने कब तय किया?
मंजुलः दसवीं से या कहिए जबसे सोचने-समझने की क्षमता डेवलप हुई। हालाँकि, शुरुआत में जब करियर चुनने का प्रश्न मेरे सामने आया तो मन में उभरा कि मुझे एनडीए में जाना है, कमीशंड ऑफिसर बनना है। लिहाजा एनडीए का एग्जाम दिया। उसको क्लियर भी किया, मगर अचानक पता नहीं क्यों, मेरे अंदर ये इंट्यूशन हुआ कि नहीं यार, यहॉं नहीं जाना है। मेरे पिताजी फौज में थे, इसलिए मैंने अपने मन की बात उनसे भी की। उन्होंने कोई जिरह नहीं की, बस इतना कहा कि ठीक है,आगे पढ़ाई करो। अब हमारे सामने जो और करियर थे उनमें ये कि ओवरसियर बनिए या फिर डॉक्टर या इंजीनियर। मैंने डॉक्टर बनने का निर्णय लिया। प्री मेडिकल टेस्ट दिया। मगर जब मेडिकल कॉलेज में एक्सीडेंट के केसेस देखे। लोगों को दर्द से कराहते देखा। डॉक्टरों की लापरवाही से लोगों को मरते देखा। लोग डॉक्टर को भगवान का रूप मानते हैं, लेकिन जो रूप मैंने देखा, उसमें भगवान क्या, इंसान का भी बड़ा बौना रूप दिखा! ओह! यहाँ तो संवेदना ही नहीं है! उसके बाद मैंने तय किया कि मुझे डॉक्टर नहीं बनना है। मैंने अपना निर्णय मैंने फिर अपने घरवालों के सामने रखा. उन्होंने कहा, ‘ठीक है, आपका जीवन है, आप जो चाहें, बनें, मगर बनना क्या है, निश्चित करके यह तो बताइए।’ अब सही करियर का चुनाव यक्ष प्रश्न की तरह मेरे सामने खड़ा हो गया। कई दिनों के बाद भी कोई ठोस निर्णय सामने नहीं आया। इसी बीच, हमारे दोस्तों ने साथ मिलकर एक स्कूल शुरू किया। उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया,जो समाज से वंचित थे। मुझे आने वाले 15 अगस्त के फंक्शन के लिए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया। और परफॉर्मर के तौर पर मुझे वे लड़के दिए गए, जो पढ़ाई में बिल्कुल फिसड्डी थे। मैंने उन बच्चों के साथ मनोज कुमार की फिल्म के एक फेमस गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती’ पर कार्यक्रम तैयार किया। परफॉर्मेंस हुआ और शो सुपरहिट हो गया! जो बच्चे पढ़ाई में कमजोर थे, वे परफॉर्मिंग आर्ट में हीरो बन गए! परफॉर्मिंग आर्ट के साथ इस तरह का मेरा पहला अनुभव था। मैंने देखा कि मंच पर आप भले ही एक्टिंग करते हो, किन्तु आप अपने आप को छुपा नहीं सकते। आपकी एक्टिंग में ट्रांसपेरेंसी नहीं है, तो दर्शक आपको नकार देंगे। मुझे समझ में आया कि थियेटर सबसे ताकतवर मीडियम है। और उसके बाद मैंने फैसला कर लिया कि परफॉर्मिंग आर्ट में ही मुझे जाना है।
धनंजयः मुंबई व्यवसाय का केन्द्र है। आर्थिक नगरी के नाम से ज्यादा जानते हैं लोग इसे, फिर थियेटर के लिए आपने इस शहर का चुनाव क्यों किया?
मंजुलः जब ये तय किया कि थियेटर को ही करियर बनाना है, तो देश के कई शहरों के स्वभाव और थियेटर के प्रति उसके दृष्टिकोण का मैंने अध्ययन और विश्लेषण किया। मुझे मुंबई सबसे अधिक उर्वर लगी। यहाँ नए विचार को लोग मौका देते हैं।
धनंजयः यहाँ आकर किस तरह अपना काम शुरू किया? थियेटर ऑफ रेलेवेंस का विचार कब आया ?
मंजुलः थियेटर ऑफ रेलेवेंस का जन्म एक दुर्घटना का परिणाम है। मुंबई आने के बाद मैंने अपना थियेटर समूह खड़ा किया। उस वक्त शेक्सपीयर से मैं बड़ा फैसिनेटेड था। शेक्सपीयर, चेखब, ब्रेख्त आदि विदेशी नाटककारों से सिर्फ मैं ही क्या, पूरा हिंदी थियेटर जगत बुरी तरह प्रभावित था। इसलिए मैंने भी शेक्सपीयर से ही शुरूआत की। मैं ‘हैमलेट’ नाम के उस नाटक में एक्टर के साथ-साथ प्रोड्यूसर भी था। सारा रिसोर्स मैंने ही खड़ा किया था। राजकमल में सेट डिजाइन हुआ था और पृथ्वी में प्रीमियर हुआ। मगर चार शो के बाद ही शो को रोकना पड़ गया। हुआ यह कि जो कलाकार क्लाडियस का रोल कर रहा था, फाइट के सीन के दौरान उसकी एक आँख के पास तलवार से थोड़ी-सी खरोंच आ गई। उस वक्त मैं अंटॉप हिल में किराए के फ्लैट में रहता था। शो रुक गया, इसलिए नाटक का सेट पृथ्वी थियेटर से निकाल कर मुझे अपने किराए के फ्लैट की बालकनी में रखना पड़ा। कुछ दिनों बाद बारिश का सीजन आ गया। बालकनी में रखा सेट वहीं पड़ा-पड़ा गलता गया और साथ ही साथ मेरे भीतर भी कुछ गलता गया। बीस साल के एक उत्साही युवक ने थियेटर में करियर बनाने का जो निर्णय लिया था, औंधे मुँह गिर पड़ा। मैं पूरे सौ दिन उस फ्लैट में बंद रहा। रोता रहा। आप कह लीजिए, शेक्सपीयर की ट्रेजिडी मेरी ट्रेजिडी बन गई। बहरहाल, एक और घटना साथ-साथ घट रही थी, मेरे फ्लैट की खिड़की के बाहर सड़क पर एक आदमी अंडा और ब्रेड बेचा करता था. वह मुझसे रोज पूछा करता, ‘साहब जी, वो आपके नाटक-वाटक का क्या हुआ?’ उस वक्त उसका रोज ऐसा पूछना जले पर नमक या कहिए तेजाब जैसा लगता था। मुझे उस पर गुस्सा आता था, लेकिन उसे जाहिर करने के बजाए अपने आपसे सवाल किया, ‘मैं थियेटर करना चाहता हूँ , लेकिन शेक्सपीयर ही क्यों करना चाहता हूँ? ये अनुदित नाटक क्यों करना चाहता हूँ ? थियेटर में अपने आप से चाहता क्या हूँ ? फ्लैट में कई दिनों तक अपने आप को कैद करके मैंने अपने आपको खोजा। फिर एक दिन बाहर निकला तो उस अंडे वाले ने फिर वही सवाल उछाला, ‘साहब,वो आपके नाटक-वाटक का क्या हुआ?’ लेकिन उस दिन मुझे गुस्सा नहीं आया। वह उसके सवाल पूछने का सौंवा दिन था। उस दिन मैंने उसके सवाल पर सोचा कि यह आदमी रोज ऐसा क्यों पूछ रहा है कि आपके नाटक-वाटक का क्या हो रहा है? अब आपका नाटक कब होगा? इसने एक बार भी ऐसा क्यों नहीं पूछा कि हमारा नाटक कब होगा? और धनंजय उसी दिन शुरूआत हुई थियेटर ऑफ रेलेवेंस की। थियेटर के दो अनिवार्य घटक हैं - एक परफॉर्मर और दूसरा ऑडिएंस। सौंवे दिन मुझे उस अंडे वाले की चिंता का अहसास हुआ कि वह रोज मुझसे यह सवाल क्यों करता रहा ! दरअसल, वह कह रहा था, ‘साहब,आप अपना थियेटर छोड़ कर मेरी तरफ देखिए और मेरा थियेटर कीजिए!’
धनंजयः उसके बाद आपने क्या किया? इसको इम्प्लीमेंट कैसे किया? सतह पर कैसे उतारा? ऊपर जिस घटनाक्रम का आपने जिक्र किया, वह 1988 का है और थियेटर ऑफ रेलेवेंस के तहत पहला परफॉर्मेंस ‘दूर से किसी ने आवाज दी’ आपने लोगों के बीच प्रस्तुत किया 1992 में, तो इन चार सालों में आपने क्या किया।
मंजुलः देखिए,जब ये बौद्ध ज्ञान मिला,तो उस समय सूत्र एक लाइन में समझ आया। उसके बाद मैंने फिर से स्टडी किया कि हिन्दुस्तानी थियेटर क्या है? ग्रीक थियेटर क्या है? दुनिया का थियेटर क्या है? फिर मैंने अपने विचार की पुनर्रचना की। वो जो एक लाइन की सिल्वर लाइन मिली थी, उसको विचार का रूप देने में लंबा वक्त लगा। उसके बाद सवाल उठा, थियेटर ऑफ रेलेवेंस नामक इस नाट्य-दर्शन को इम्प्लीमेंट कैसे किया जाय? लोगों को इस नए दर्शन के बारे में समझाना है, तो कौन-कौन सी चुनौतियाँ आएँगी? तो एक चुनौती समझ में आयी- अल्प समझ। यह सबसे बड़ी चुनौती थी। दूसरी चुनौती थी-ठहरा हुआ रंगकर्म। स्टेगनेंट जो रंगकर्म है, जिसमें रंगकर्मी कहते हैं कि दर्शक नहीं आते। तीसरी चुनौती मैंने यह पहचानी कि लोगों के पास हम जाएँगे कैसे? क्या लोगों के बीच जाकर प्रवचन करेंगे कि देखो यह है थियेटर ऑफ रेलेवेंस! या प्रस्तुति के माध्यम से इसे लोगों के सामने रखें ? थियेटर अल्टीमेटली एक्शन है। लेकिन एक्शन के पीछे का सोच पूरी तरह क्लियर और साइंटिफिक होना चाहिए। तो धनंजय एक्टर से मेरी भूमिका रंगचिंतक में परिवर्तित हो गई। और तीन से चार साल तक मैं एक रंगचिंतक के तौर पर भारत से लेकर विदेश के थियेटर को समझता रहा। फिर मान्यता से हटकर एक अलग तरह के थियेटर के लिए मैंने अपने आपको तैयार किया. और 12 अगस्त 1992 को मैंने अपने कुछ साथियों के साथ आधिकारिक तौर पर यह निर्णय लिया कि हम और हमारे साथी थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य सिद्धांत में जीएँगे। जब हमने यह निर्णय लिया तो बहुत दिन नहीं बीते थे, कि बाबरी ढाँचा गिरा दिया गया। देश में दंगे भड़क उठे और मुंबई भी इसमें जलने से बच नहीं सका। ऐसे में हमने थियेटर ऑफ रेलेवेंस की जो परिकल्पना की थी कि थियेटर, जिसकी रचना, मानव-जीवन को बेहतर बनाने के लिए हुई है.उसको परखने की घड़ी आ गई। दंगे में मानवीयता तो झुलस गई थी। ऐसी भ्रमित मानवीय देहों में बसी मानवीयता को कैसे जगाएँ? यह चुनौती हमारे सामने उपस्थित हो गई। तो सबसे पहले मैंने एक नाटक लिखा, ‘दूर से किसी ने आवाज दी।’ मैंने अपने थियेटर के साथियों के सामने उस नाटक को रखा कि दंगों में फँसे लोगों के बीच हमें इसका प्रदर्शन करना है। पहले तो हमारे साथी तैयार नहीं हुए। चार घंटों तक हमारे बीच सर्द-गर्म बहस चलती रही। कई साथियों ने कहा कि आप थियेटर के प्रति कमिटेड हो, अच्छा थियेटर करना चाहते हो, यहाँ तक तो ठीक है, मगर थिएटर के लिए हमें अपनी जानें नहीं गंवानी है। लेकिन मैं अपने निर्णय पर अडिग खड़ा रहा। मैंने अपने साथियों से कहा, ‘ ये सफेद कुर्त्ता ही अपने लिए कफन है! कल ठीक पाँच बजे हम स्टेशन पर मिलेंगे।’ साहसिक बात यह थी कि निर्धारित समय पर सारे साथी स्टेशन पहुँच गए! फिर खार और बेहरामपाड़ा के बीच जो कर्फ्यूग्रस्त एरिया था, वहाँ हमने ‘दूर से किसी ने आवाज दी’ नाटक खेला! उस नाटक को तकरीबन 15 सौ लोगों ने देखा! और उनमें जो वैमनस्यता की भावना थी, उसे हमने प्यार और मोहब्बत में बदला! बदलते देखा. यह थियेटर ऑफ रेलेवेंस की पहली जीत थी। या ये कहिए यह रंगकर्म की जीत थी! और एक नया अनुभव, नया आयाम कि जो आजतक किताबों में बस लोग लिखते हैं कि थियेटर ये कर सकता है, वो हमने किया! उस दिन से एक्सपेरिमेंटल थियेटर फॉउंडेशन एक नाट्य आंदोलन बना।
धनंजयः हमारा हिंदी समाज थियेटर को लेकर अभी भी बहुत गंभीर नहीं है। थियेटर करने वालों को नचनिया-गवनिया मानते हैं, आपके अनुभव कैसे रहे?
मंजुलः धनंजय, इसमें समाज को दोषी मैं नहीं मानता। दोष रंगकर्मियों का है, जो अपनी प्रतिबद्धता को भूल अवसरवादिता का रास्ता चुनते हैं। फिर एक नकाब ओढ़ लेते हैं कि हम तो मनोरंजन करते हैं। मतलब जब आप ही अपने काम को लेकर गंभीर नहीं हैं, तो दर्शक या समाज आपको गंभीरता से क्यों ले? अब अधकचरापन अगर रंगकर्मियों के सोच में है, तो दर्शक क्यों दोषी हो? हम दो दशक से थियेटर कर रहे हैं, हमें तो कहीं किसी ने नहीं कहा! हमारे थियेटर को तो वही लोग,जिसे सब आम आदमी कहते हैं, जीवन जीने का जरिया मानते हैं! अब तक सीधे तौर पर हम दो लाख लोगों तक पहुँचे हैं, लेकिन किसी ने ये नहीं कहा कि मुझे एक्टर बनना है. सबने कहा- ‘थियेटर इसलिए करना है कि हमें जीवन जीना है । लोग कहते हैं, इसमें रचनात्मक प्रतिबद्धता को मौका मिला है। एक प्रसिद्ध रंगकर्मी, जो अब हमारे बीच नहीं रहीं, उनके लिए जब मैंने थिएटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य वर्कशॉप किया, तो उन्होंने माना कि वाकई जीवन कितना बढ़िया अभिव्यक्त हो रहा है! सारे के सारे पार्टिसिपेंट अपने आप को एक ऐसे श्रोत में पाते हैं, जो सृजनशील हैं। फिर उन्होंने एक सवाल किया, ‘सिर्फ अभिव्यक्ति तो कला नहीं होती?’ तो मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि जब एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति को समूह अपनी अभिव्यक्ति कहता है, तब तो वह कला होती है न? और फिर उन्होंने माना कि थियेटर ऑफ रेलेवेंस सचमुच जीवन जीने का जरिया है।
धनंजयः थियेटर भी दो भाग में बँटा है- मास थियेटर और क्लास थियेटर। आप क्या मानते हैं?
मंजुलः मैं इस विभाजन को सही नहीं मानता। यह रंगकर्म को टुकड़ों में देखने की एक साजिश है। और यह रंगकर्मिर्यों की रंगकर्म के प्रति प्रतिबद्धता से जुड़ा है। अगर आपमें समग्र रंगसोच नहीं है, टुकड़ों वाला रंगसोच है, तो आप रंगकर्म को भी टुकड़ों में ही देखेंगे। हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपनी पसंद का थियेटर करे। किसी को एअर कंडीशंड हॉल में थियेटर करना पसंद है तो करे, मगर इसे वह अल्टीमेट न मान ले। ऐसा ही आग्रह बस्ती में जाकर या नुक्कड़ नाटक करने वालों का भी है, उन्हें भी लगता है कि सही मायने में वही असली थियेटर कर रहे हैं! मैं दोनों के आग्रह को अधूरा मानता हूँ। बंद गृह में जो नाटक कर रहे हैं, उनको भी अपनी चारदीवारी को तोड़कर बाहर आना होगा और जो ग्रासरूट पर नाटक कर रहे है, उनको भी अपनी सीमाओं से आगे बढ़ना होगा। थियेटर को टुकड़ों में बाँटने के बजाय समग्रता में अपनाना होगा, तभी थियेटर के प्रति आपकी सच्ची प्रतिबद्धता साबित होगी और अपने साथ-साथ थियेटर का भी भला कर पाएंगे।
धनंजयः अधिकांश थियेटरकर्मियों का रोना है कि हिंदी थियेटर में दर्शकों का अभाव है। लोग नाटक देखने नहीं आते। आम आदमी की नाटकों में रुचि नहीं नहीं है? आपका कैसा अनुभव रहा ?
मंजुलः दर्शकों को दोष देना गलत है। ऐसे मिथ्या आरोप वे थियेटरकर्मी लगाते हैं, जो थियेटर में आधे अधूरे हैं। जिनका सोच स्पष्ट नहीं है। ये वे लोग हैं, जो थियेटर को अपनी एक छोटी-सी ख्वाहिश पूरी करने का जरिया मानते हैं। दर्शकों की मानसिकता को समझने से पहले रंगकर्मियों के अंतरमन को समझना होगा। हमें सबसे पहले ये देखना होगा कि वे नाटक क्यों करते हैं? नाटक करने के पीछे उनका चिंतन क्या है? हमारे नाट्य प्रशिक्षण संस्थान रंगकर्मियों को किस तरह का प्रशिक्षण देते हैं? तो वे सिर्फ तकनीक का प्रशिक्षण देते हैं। और तकनीक का प्रशिक्षण आपको तकनीकी बनाता है, आपके अंदर रंगसोच का विकास नहीं करता! थियेटर करना है, मगर कैसा थियेटर करना है? वैसा,जो आपको संतुष्टि दे, या वैसा, जो दर्शकों को अच्छा लगे ? अपनी संतुष्टि के लिए नाटक करते हैं, तो फिर दर्शकों के नहीं आने का रोना रोने का कोई औचित्य नहीं! और यदि आप दर्शकों की पसंद का नाटक करना चाहते हैं, तो आपको दर्शकों के सरोकार से जुड़े नाटक करने होंगे! आपको वही नाटक प्रस्तुत करना होगा,जो समाज में घटित हो रहा है। और जब हम जन की आवाज को, जनमानस की आवाज को नाटक में पिरोकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत करेंगे, तभी तो दर्शक आपकी प्रस्तुति को देखेगा। क्योंकि दर्शक जब आता है, सबसे पहले वह यह देखता है कि क्या वह रंगकर्मी मेरे अंदर की प्रक्रियाओं को समझ रहा है? मेरी भावनाओं को वह प्रस्तुत कर रहा है ? क्या वह मुझे आईना दिखाने का काम कर रहा है ? और जबतक ऐसा नहीं होगा, दर्शक नहीं आएगा। दर्शक क्यों आएगा? इसलिए कि आप एक नाटक करना चाहते हैं! तो एक बार तो आ जाएगा कि चलिए अपने लिए आप कोई काम कर रहे हैं। लेकिन लगातार दर्शकों का जुड़ाव तब होगा, जब आपकी अभिव्यक्ति में अपने आप को देखेगा। जब थियेटरकर्मी दर्शक के सपने, उसकी ख्वाहिशों, उसके शोषण, समस्याओं और विशेषताओं को अपनी प्रस्तुति का आधार बनाएंगे। जब आप दर्शक की आवाज बनोगे, तभी दर्शक आपकी आवाज बनता है। मुझे लगता है थियेटर का जन्म भी इसीलिए हुआ है। थियेटर ऑफ रेलेवेंस जनमानस की आवाज है, इसीलिए आम आदमी इस पद्धति की प्रस्तुतियों की आवाज बन जाता है।
धनंजयः अनुदित नाटकों के अधिकतम प्रयोग की वजह से भी दर्शकों में कमी आई, आप इसकी तरफ इशारा कर रहे हैं?
मंजुल: हाँ,मैं दर्शकों की उदासीनता की इसे बड़ी वजह मानता हूँ। देखिए, लेखक जिस समाज में जीता है, उसका प्रभाव उस पर होता है। लेखक वही लिखता है, जैसा उसके आसपास घटता है, जैसा वह देखता है, महसूस करता है। इसलिए नाटकों के लिए परिवेश और परिप्रेक्ष्य दोनों महत्वपूर्ण हैं। विदेशी नाटककारों के लिखे नाटक उसी परिवेश और परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। बाहर के नाटककारों ने जिस तरह के नाटक लिखे, जिस तरह से लिखे, उसी शैली में भारतीय पद्धति, भारतीय सभ्यता, भारतीय जीवन पर आपने नाटक लिखा, तो आप खो रहे हैं। आपको भारतीयता को समझने की जरूरत है। भारतीय शैली में, भारतीय समझ के साथ जब नाटक लिखा जाएगा तो वह भारतीय होगा. तभी वह नाटक भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करेगा। जैसा मैंने आपसे कहा धनंजय कि थियेटर ऑफ रेलेवेंस ने नाटकों की अलग-अलग भूमिकाओं की पुनर्व्याख्या की है। थियेटर ऑफ रेलेवेंस में अभिनेता प्रमुख रंगकर्मी नहीं है! दर्शक सबसे बड़ा रंगकर्मी है। उसके बाद लेखक सबसे बड़ा रंगकर्मी है। लेखक जबतक जिएगा नहीं. उस सभ्यता के, जीवन के करीब नहीं रहेगा, उसकी कृति में वो कमी रहेगी। वह जितना जीवन के करीब होगा, जीवन के ताप को जितनी निकटता से महसूस करेगा, उसका नाटक उतना ही मजबूत होगा। वह लोगों के उतना ही करीब होगा। विदेशी नाटकों को छोड़िए, अपने संस्कृत के नाटकों को ही लीजिए. वे नाटक राजाओं महाराजाओं की पृष्ठभूमि पर लिखे गए। राजा-महाराजाओं का दौर अब नहीं रहा। आज काल बदल चुका है। क्या अभी भी राजा-महाराजा तक ही सीमित रहेंगे? आप जन पर लिखिए. जनमानस पर लिखिए। और जो नाटककार, दुनिया में कहीं भी हो, जिसने जनमानस की बात की है, उसकी कृति, उसका नाटक पूरी दुनिया में खेला गया। इसलिए नाटककार का मजबूत होना जरूरी है। जिस भाषा में नाटककार-नाट्यलेखक मजबूत है, उस भाषा का रंगकर्म उतना ही मजबूत है। जबतक लोगों से जुड़ा नाटक आप नहीं खेलेंगे, और लोगों से जुड़ा हुआ नाटक का मतलब नाच गाने वाला नहीं। जबतक उनके सोच को समझते हुए नाटक नहीं लिखेंगे तो हिन्दी क्या किसी भी भाषा का रंगकर्मी आपसे नहीं जुड़ेगा।
धनंजय: तो अच्छे लेखक कैसे तैयार होंगे ?
मंजुलः अपने आप तैयार नहीं होंगे। संवाद की बात है और साहित्यकारों को उत्साहित करने की बात है। जैसे एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन ने पिछले दो दशकों में बहुत सारे साहित्यकारों को जोड़ा है। जिन कहानियों को प्रसिद्व नाट्य निर्देशक ने मंच के लिए असाध्य कह कर खारिज कर दिया, हमने उन कहानियों का भी सफल और उद्देश्यपूर्ण मंचन किया। अनेक बार ऐसा किया। और आज मैं ये बात कह सकता हूँ कि हमारे पास कुछ नहीं तो पाँच से दस ऐसे बढ़िया हिेदी के नाटक हैं, जो दर्शकों के सामने आए हैं और आएँगे। हम अपने नाट्य कार्यशालाओं में अपने सहभागियों से कहते हैं कि आप नाटक लिखो और उसमें छोटे-छोटे नाटक सहभागी लिखते हैं। उन्हीं के लिखे नाटकों को हम प्रदर्शित करते हैं। तो नाट्य लेखन में जो बंजर भूमि है, सदियों से जिसको हतोत्साहित करके नेपथ्य में धकेल दिया गया है, उसमें हल चलाने और बीज बोने का काम कर रहे हैं हम। हमने लेखक की संभावनाओं को अंकुरित किया है। उसको सींचने का काम किया है। और लेखकों की पौध आगे बढ़ रही है। भविष्य में हिंदी को बहुत बेहतर नाटककार मिलने की हमारे पास संभावनाएँ हैं।
धनंजयः आपने बच्चों के साथ भी काफी रंगकर्म किया है, अब भी कर रहे हैं। लोग ट्रेंड एक्टर्स के माध्यम से थियेटर में अपने आपको स्थापित करते हैं, मगर आपने बच्चों के साथ थियेटर करके अपने आपको स्थापित किया।
मंजुलः हमारे देश में बच्चे सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं। वो चाहे किसी भी वर्ग के बच्चे हों, उच्च वर्ग, मध्य वर्ग हों या झोपड़पट्टी के बच्चे हों। हमने रंग संभावनाओं की तलाश में बच्चों के साथ काम इसलिए किया कि हमारे समाज में बच्चों को कम से कम आज़ादी दी जाती है. उन्हें हमेशा एक सीमा में रहने को कहा जाता है. सीमा बड़े तय करते हैं. बच्चे अपने आप को ठीक से अभिव्यक्त भी नहीं कर पाते. एक तरफ तो हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, किंतु बच्चों के मामले में हम बदल जाते हैं. वो क्या करें, क्या न करें हम बड़े तय करते हैं. हम जानना चाह्ते थे बच्चे क्या चाहते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बच्चों पर क्या असर होता है? उनकी सृजनशीलता स्वतः कैसे विकसित हो? आज देखिए कि हमारे स्कूलों में रंगकर्म नहीं कराया जाता। रंगकर्म का जिंदगी में बचपन से ही जुड़ाव नहीं है। बड़े होने पर कहाँ से होगा? इसीलिए सोच समझ के एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन ने थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य पद्धति के तहत बच्चों के साथ सतत् रंगकर्म करना शुरू किया।
धनंजयः बच्चों को आपने मंच के लिए आपने कैसे तैयार किया?
मंजुलः उन्हें किसी सीमा में बाँधने के बजाय मैंने उन्हें आज़ादी दी. उनसे कहा कि ये मंच आप लीजिए और आपको जैसा लिखना है, जैसा खेलना है, जैसी एक्टिंग करनी है, जैसा निर्देशन करना है, अपनी मर्जी से कीजिए। हमारी भूमिका उत्प्रेरक की होगी। हमारा यह प्रयोग बेहद सफल रहा. बच्चों ने खुलकर अपनी बातें नाट्य रूप में मंच पर रखीं. और मैंने बार-बार यह महसूस किया कि बच्चे बिल्कुल अलग सा सोच रहे हैं. वे वैसे नहीं हैं, जैसा हम बड़े उनको समझते हैं! बाल मजदूरों के साथ नाटक करते हुए मैंने पाया कि जब बाल मजदूरों ने अपने मालिकों के सामने परफॉर्म किया तो मालिकों ने भी तालियाँ बजाईं! जो मालिक सुबह से शाम देर रात तक बात-बेबात उन बच्चों को गंदी-गंदी गालियाँ देता था, मारता था, दुत्कारता था, वही नाटक देखकर तालियाँ बजा रहा था! उन बच्चों ने भी पहली बार महसूस किया कि उनके अंदर प्रतिभा है। और फिर मैंने बाल नाट्य उत्सव के बारे में सोचा। पृथ्वी थियेटर में पहली बार जब ‘विद्या ददाति विनयम्’ का मंचन हुआ तो सुबह 11 बजे 220 दर्शकों के बैठने की क्षमता वाले पृथ्वी थियेटर में 300-350 बच्चे, पालक और टीचर बैठे हुए थे। बच्चों को किस तरह का हौसला मिला होगा, इसका आप अंदाजा लगा सकते हैं। बच्चों को पर्सनलिटी डेवलपमेंट से कहीं आगे ‘मैं हूँ ’ का गहराई तक अहसास हुआ- ‘मैं जो सोचता हूँ, करता हूँ, वह स्वागत योग्य है।‘ क्योंकि आप देखिए, बच्चों के सामने दिक्कत है कि वयस्क 5-6 फीट और वे 3-4 फीट, तो गर्दन ऊपर टेढ़ी करके बात करनी पड़ती है। फिर उनको दुत्कार मिलती है, उन्हें सीमित कर दिया जाता है कि इसी दायरे में रहो, देखो और सोचो। बाल नाट्य उत्सव ने उस प्रक्रिया को तोड़ा। सभ्य समाज के सामने बच्चों के मुद्दों को प्रमुखता से रखा।
धनंजयः मंजुल जी, लेकिन जो एक लीक है, उसमें यह है कि ट्रेंड एक्टर के साथ, ट्रेंड डायरेक्टर के साथ काम किया जाय !
मंजुलः ट्रेनिंग सोच है कि मुझे ये पता हो कि मैं ये चुटकी क्यों बजा रहा हूँ! उसका क्या ध्येय है? कितना बजाना है? कब बजाना है? इसका मतलब निर्णय लेने की प्रक्रिया को कौन-सी प्रक्रिया मजबूत बनाती है, कौन-सा प्रशिक्षण मजबूत बनाता है, यह महत्वपूर्ण है! थियेटर ऑफ रेलेवेंस व्यक्ति को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सबसे मजबूत बनाती है। उसकी सृजनशीलता जन को दृष्टि देने का काम करती है।
धनंजयः लेकिन इसमें आलोचना का खतरा है. जो ट्रेंड एक्टर के साथ, एक विशेष अनुशासन के साथ थिएटर कर रहे हैं, करते रहे हैं, सम्भव है वे लोग आप पर आरोप लगायें कि आप थियेटर को बर्बाद कर रहे हैं?
मंजुल:- वाह! बहुत बढिया बात कही आपने। शुरू में जब मैंने और मेरे साथियों ने थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य पद्धति पर नाटक करना शुरू किया तो जो स्थापित रंगकर्मी हैं, उनका विरोध जरूर रहा। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि ऐसे थियटर होता ही नहीं। उस वक्त मुझे उस बात में एक रिएक्टिव था, गुस्सा था, लेकिन उसी गुस्से ने मेरे लिए ईंधन का काम किया। उन्होंने कहा कि यह कौन-सा नया विचार है.? उन्होंने इसे एक इंटेलेच्युअल बहस तक तब्दील करने में और वहीं तक सीमित रखने में भूमिका निभाई। लेकिन मैंने इन्हें एक-एक करके समझा। पहले ये था कि दर्शक नहीं आते। और खासकर हिंदी का नाटक देखने दर्शक नहीं आते, तो मैं और मेरी टीम ने पूरी मुंबई में हर जगह अपने प्रयोग किए. आज कोई बस्ती का नाट्यगृह, कोई स्कूल या कोई ऎसा कॉलेज नहीं है, जहाँ इन दो दशकों में हमने नाटक न किया हो। और कभी भी हमें दर्शकों की कमी नहीं रही। दो सौ से तीन सौ दर्शक हमेशा हमारे शो में रहे। तो उन लोगों ने माना कि अच्छा ठीक है ऐसा हो सकता है। फिर उन्होंने सवाल खड़ा किया कि रंगकर्म में आप जिन्दा नहीं रह सकते!...तो हम और हमारे साथी रंगकर्म पर जिंदा रहे। फिर हमने ये कहा कि रंगकर्म से बदलाव आता है, तो उन्होंने कहा कि नहीं, ये बदलाव कैसे ला सकता है? तो हमने उनको तथ्यात्मक बात बताई। तथाकथित स्थापित रंगकर्मी से मैंने पूछा कि आपके जीवन से अगर थियेटर निकाल दिया जाय तो क्या बचता है? थियेटर अगर आपको लीजेंड बना सकता है, आपको महान बना सकता है, तो एक व्यक्ति को जीने का हौसला क्यों नहीं दे सकता?! किसी भी स्थापित समूह को देखिए, ये समूह नहीं व्यक्ति के रूप में बड़े होते हैं। नाम बड़ा हो गया है, फिर भी रो रहे हैं। मैं इनकी इस बात को नहीं मानता कि ये 20, 25 या 30 साल से थियेटर कर रहे हैं, मगर उन्हें थिएटर से पैसा नहीं मिलता। अगर नहीं मिलता तो क्यों कर रहे हैं? इसका मतलब असली भेद जो है रंगसोच का है, कि ठीक है कुछ दो-तीन चीजों में आपने पकड़ बना ली. उससे आप बढ़ गए, मगर रंगकर्म कहाँ बढ़ा? और थियेटर ऑफ रेलेवेंस रंगकर्म की प्रक्रिया का नाम है। आज विरोध कम है, मौन स्वीकृति ज्यादा है. लेकिन ये दरियादिली कि यह हमारी रंगसोच है, अभी भी नहीं दिखाई है। प्रश्न उठाइए,क्योंकि सवालों से और व्याख्या मिलती है, लेकिन जो पूरे हिंदुस्तान में सिद्ध हो चुका है, उसको अपनाइए अपने समूह में। और फिर 1994 में मैंने जो नाटक लिखा ‘मेरा बचपन’ जो कि बाल मजदूरों पर आधारित है, उस नाटक ने बदलाव की एक प्रयोगशाला के रूप में काम किया, बदलाव के आंदोलन के रूप में काम किया कि कैसे 50 हजार बच्चों ने उस नाट्यप्रक्रिया में शामिल होके स्कूल जाना शुरू किया! शोषण के खिलाफ आवाज उठाना शुरू किया!अपने हक को समझते हुए स्कूल जाना शुरू किया! तो मुझे लगता है कि प्रयोग अपने आप में देशभर में इतना व्यापक था कि लोगों ने फिर इसे मानना शुरू किया। सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि आम आदमी की तरफ से, नागरिक से तरफ से कभी कोई चुनौती नहीं आई।उन्होंने हमें सहर्ष स्वीकार किया।

धनंजयः विदेशों में थियेटर ऑफ रेलेवेंस पर रंगकर्मियों ने किस तरह की प्रतिक्रिया दी?
मंजुलः विदेश से मुझे और मेरी टीम को बुलावा आना, मेरे लिए बड़ा सुखद पहलू था। मगर मेरे सामने यह दुविधा खड़ी हो गई कि किस तरह के रंगकर्म को लेकर वहाँ जाऊँ? प्रशिक्षित रंगकर्मियों को लेकर जाऊँ या जिस तरह का थियेटर मैं कर रहा हूँ, उसे ही उनके सामने ले जाऊँ ? उस समय मैं बाल मजदूरों के साथ पूरे देश में थियेटर कर रहा था। बहुत विचार के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि जिन बच्चों के साथ काम कर रहा हूँ, उनको लेकर ही जाउँगा। तो सबसे पहले मैंने बच्चों के लिए एक नाटक लिखा- ‘बी-7’ । ग्लोबलाइजेशन को नाटक का विषय बनाया ताकि वह पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक हो। फिर उन्हीं बच्चों में से सात बच्चों को अभिनय के लिए चुना। सभी 10 से 13 साल उम्र के बच्चे थे। 4 लड़के और 3 लड़कियाँ। नाटक तैयार किया और ले गया। पहले तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि ये बच्चे अंतरराष्ट्रीय स्तर का परफॉर्मेंस दे पाएँगें! मगर परफॉर्मेंस देखने के बाद सबने माना कि बढ़िया प्रस्तुति है। उन्हें हमारी प्रस्तुति जीवंत लगी। मुझे यह भी समझ में आया कि उन्हें थियेटर ऑफ रेलेवेंस क्यों पसंद आया! दरअसल उनके यहाँ इस्टैगनेशन है, क्योंकि देह का वह जितना उपभोग कर सकते थे, कर लिया। तकनीक की चाहे कितनी ही ईजाद कर लें, मगर संवेदनाओं के मामले में हमारा देश बहुत आगे है। जब उन्होंने देखा कि सात बच्चे 40/40 के स्टेज को किस तरह से कवर कर रहे हैं, बच्चे छोटी हाइट के हैं, लेकिन कितने ऊँचे हो जा रहे हैं परफॉर्मेंस के दौरान! दर्शकों पर किस जबरदस्त तरीके से अपना असर बना ले रहे हैं। तब उन्हें यह भी समझ में आया कि तकनीक थियेटर नहीं है। सैकड़ों लाइट्स, अच्छी तरह सजा सेट और डिजाइन किए हुए ड्रेसेस, आधुनिक साउंड इक्वेपमेंट सब मिलकर भी वो अनुभव नहीं दे सकते, जैसा अनुभव इस नाटक ने दिया। तकनीक तो प्रस्तुति को लाइट एंड साउंड शो बना देता है, नाटक कहाँ बचता है ? तकनीक सबसे पहले थियेटर को मारता है। थियेटर संवेदना है। विचारों की अभिव्यक्ति है। और मेरे विचार से किसी विचार को अभिव्यक्त करने के लिए तकनीक का उतना ही प्रयोग हो, जितना आटे में नमक।

धनंजयः जिन लोगों ने रंगकर्म की ट्रेनिंग ली, थियेटर में लंबा वक्त दिया, उनलोगों का भी मानना है कि थियेटर से घर नहीं चलाया जा सकता। आपको क्या अनुभव हो रहा है?
मंजुलः जो ऐसा कह रहे हैं, उनसे प्रति प्रश्न किया जाना चाहिए, ‘उनके लिए रंगकर्म क्या है? थियेटर को उन्होंने करियर के तौर पर अपनाया या कि पायदान के तौर पर?’ तो भाई यह अपनी-अपनी प्रतिबद्धता की बात है। जैसे मेरे लिए बोलते हैं कि ये तो सामाजिक नाटक करते हैं। थियेटर ऑफ रेलेवेंस सामाजिक नाटकों पर केन्द्रित है। ये बहुत सरलीकृत बयान है। मैंने आजतक अपने जीवन में ऐसा एक भी नाटक नहीं देखा, जो सामाजिक न हो। गैर सामाजिक थीम पर तो नाटक नहीं किया जा सकता! तो असली फर्क कहाँ है? असली फर्क प्रतिबद्धता का है, रंगसोच का है। आप रंगकर्म को आजीविका का माध्यम नहीं बनाना चाहते हैं, तो कैसे बनेगा! सीधा सवाल है,कि आपने अपनी ज़िन्दगी में कितना थियेटर देखा? मुंबई में 50 थियेटर, जिसमें मराठी भी मिला दिया ! हिंदी का एक पृथ्वी थियेटर, या अंग्रेजी के चार-पाँच थियेटर, जिसमें टाटा थियेटर भी शामिल है। आप जीवन भर यहीं तक सीमित रहेंगे, तो कैसे चलेगी आपकी जीविका! आज पृथ्वी थियेटर में परफॉर्म करने वाले बीस के करीब ग्रुप हैं। आपको कितना मौका मिलेगा? दूसरा, फिर आप अपने थियेटर को प्रक्रिया बनाना चाहते हैं या प्रॉडक्ट? और प्रॉडक्ट बनाना चाहते हो तो आप उसको कितने में बेचते हैं? थियेटर के लोगों को जबतक ये इकॉनोमिक्स समझ में नहीं आता, तबतक उन्हें आर्थिक आधार नहीं ही मिलनेवाला है। सीधी बात ये है कि अगर आपकी पाँच रूपये लागत है तो पाँच सौ रूपये प्रॉफिट हो तब तो आपका अर्थजगत ठीक है, नहीं तो आप कहीं गड़बड़ करते हैं। तो यह अलग-अलग पहलू हैं, इसको मिक्स का देना गलत है। दूसरा है कि जब हम रंगकर्मी बोलते हैं, तो सिर्फ अभिनेता के तौर पर देखते हैं, तब तो यह बात ठीक है कि सिर्फ अभिनेता होने के नाते आपकी रोजी-रोटी नहीं चल सकती। आप एक ग्रुप में काम करते हैं। उनका विधान यह है कि वो दूसरे ग्रुप में जाने नहीं देते। आपको प्रॉपर्टी समझते हैं। अगर लगातार आपके दिन में तीन प्रयोग नहीं होंगे, तो आज मुंबई में जीने के लिए कम से कम 15 से 20 हजार रूपये की जरूरत है। तो जबतक आप एक दिन में तीन शो नहीं करेंगे, तो कैसे जीएँगे? इसका मतलब है कि रंगकर्मी होने का तात्पर्य है, स्टेज पर झाड़ू लगाने से लेकर रंगचिंतक तक काम करें, तब तो आप जी सकते हैं।
धनंजयः मंजुल जी, ये आर्थिक क्रांति का दौर है. आज हर चीज अर्थ के इर्द-गिर्द घूम रही है- विचार से लेकर कर्म तक, वहाँ थियेटर को आप कैसे जिंदा रख पाएंगे? कैसे उसे आम आदमी से जोड़ के रख पाएंगे?
मंजुलः आपके सवाल में ही उत्तर है। ये सब व्यक्ति अपनी अपनी क्राँति कर रहे हैं, लेकिन सांस्कृतिक क्राँति कौन करेगा? और सांस्कृतिक क्राँति करने के पहले सांस्कृतिक चेतना की आवश्यकता है। और थियेटर ऑफ रेलेवेंस एक सांस्कृतिक चेतना है। यहाँ आवाहन कर रहे हैं कि क्यों रचनाकार नहीं आ रहे हैं? क्यों रचनाकार अपनी भूमिका को अदा नहीं कर रहे हैं? हिंदुस्तान क्या कहीं भी दुनिया में सांस्कृतिेक चेतना नहीं है। दुनिया सांस्कृतिक चेतना के टर्बायल पर बैठी हुई है। और वो ज्वालामुखी जरूर फूटेगा।
धनंजयः लेकिन सवाल यह उठता है कि जब आर्थिक क्राँति की बात हम करते हैं, अर्थ की बात करते हैं, तो भ्रष्टाचार की बात उठ जाती है। आज हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे ज्यादा लड़ाई चल रही है। हद तो यह हो गई कि भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक नहीं रहा, रिश्तों में भी भ्रष्टाचार भर गया है। जो जहाँ बैठा है, छोटी या बड़ी जगह, अपनी सामर्थ्य के अनुसार भ्रष्टाचार कर रहा है। तो ऐसे समय में विचारों का स्तरीय होना या विचारवान काम करना कैसे संभव है?
मंजुलः देखिए, भ्रष्टाचार एक बाहरी आवरण है। जब नैतिक मूल्यों का पतन होगा तो ये तो होगा ही। नैतिक मूल्यों पर मैं थोड़ा और डिटेल में जाऊँ, तो जैसे पूँजीवाद है या साम्यवाद, दोनों में क्या समानता है?-पूँजी। अंतरविरोध क्या है? पूँजीवाद कहता है कि एक व्यक्ति भी मालिक हो सकता है। साम्यवाद कहता है कि नहीं, सबकी मिल्कियत होनी चाहिए। यानी जन की मिल्कियत हो , सर्वहारा की मिल्कियत है. दोनों ने अपनी व्यवस्था कायम की है। लेकिन दोनों ने इस प्रवृति पर काम नहीं किया है। और जब तक प्रवृति पर काम नहीं करोगे, ये समस्या हमारे सामने बनी रहेगी. इस व्यवस्था में शोषण करने वाला कभी-कभी मैं ही होता हूँ और शोषित होने वाला भी मैं ही। ये सारा भ्रष्टाचार मूल्यों के पतन की वजह से है. जबतक हम अपने मूल्यों को लेकर जागरूक नहीं होंगे, भ्रष्टाचार, अनाचार,दुराचार-किसी भी तरह के कुविचार नहीं मिटनेवाले हैं. इसलिए थियेटर ऑफ रेलेवेंस जीवन मूल्यों पर काम करता है.यह आपके मूल्यों को खंगोलता है। उसकी पहचान करता है और आपकी पहचान करवाता है. जैसे, आप अगर दारू पीते हैं, तो दारूबंदी पर नाटक नहीं कर सकते. आप बाल मजदूरी पर नाटक नहीं कर सकते, अगर आप अपने ही घर में दस बच्चों को बाल मजदूर के तौर पर रखा हुआ है! या आप हिंसा के खिलाफ काम नहीं कर सकते, यदि आप अपने ही घर में मारपीट करते हैं। इसे थियेटर ऑफ रेलेवेंस या कहिए नाटक की जीत मैं मानता हूँ। नाटक में ताकत है कि वो आपको मुखौटा देता भी है और आपका मुखौटा निकालता भी है कि आप ये हैं। जबतक आप अपने-आप को निकालकर लोगों को नहीं दिखाएंगे, तबतक आइना देखने में झिझकेंगे आप । आज लोगों में संवेदना नहीं है. वह नहीं समझ पा रहे हैं कि भ्रष्टाचार से वह अपनी ज़िन्दगी को भी मुश्किल में डाल रहे हैं. क्योंकि उनमें मूल्य नहीं है। तो मानवीय मूल्यों को फिर से प्रतिस्थापित करने की चुनौती है। और उस चुनौती को हम स्वीकार कर रहे हैं। जनमानस भी स्वीकार कर रहा है। लेकिन उसका तबका छोटा है। लेकिन सवाल यह भी है कि सूरज कितने हैं? या इस देश में भगत सिंह कितने हुए? गाँधी या स्वामी विवेकानंद कितने हुए? या दुनिया में मार्क्स कितने है? एक! तो ये भूमिका हम सब को समय समय पर निभानी पड़ेगी।
धनंजयः लेखक कैसे बने? क्यों बने?
मंजुलः देखिए, जब हम रंगचेतना की बात करते हैं, तो कहने भर से बात नहीं बनेगी, जबतक आप उसे जिंदगी से ना जोड़ें। नाट्य लिखना उसी प्रक्रिया का अगला पड़ाव है। या आप कह लीजिए कि वो अपने आपको खोजने का एक तरीका है. कि आप अपने अंदर उस नाट्य चेतना को लोगों को सामने रखने के लिए आप अपनी नाट्य सृजना करते हैं या अपने मापदंड तय करते हैं। वो जो विचार है, उस विचार को अमल में लाने की क्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है। उसका एक रंगविधान है, जो अपने आप बनता है। इसलिए नाट्य लेखन की यात्रा हुई या नाट्य लेखन में इवाल्युशन हुआ या मेरा डायमेंशन या वो पहलू सामने आया।
धनंजयः यानी आप यह नहीं मानते कि लेखकों की कमी है, इसलिए जिस तरह का रंगकर्म आप करना चाह रहे थे, जिस तरह की रंगचेतना समाज में आप भरना या कहें जगाना चाह रहे थे, वैसे नाटक आपको नहीं मिले इसलिए नाट्य लेखन शुरू किया?
मंजुलः बिल्कुल सही बात है, क्योंकि उस परिपाटी पर अगर नाटक लिखे हुए होते तो यह (थियेटर ऑफ रेलेवेंस) रंगचेतना ही नहीं आती। या आप कह लीजिए कि न्यूटन के पहले ये होता कि ग्रेविटेशनल लॉ है, तो न्यूटन को यह बात कहने की जरूरत नहीं पड़ती। तो यह बात दृष्टि की है। और उस दृष्टि को स्थापित करने के लिए आपको अपने मानक बनाने पड़ते हैं। गढ़ने पड़ते हैं। देखिए, एक है रेलेवेंट होना और दूसरा है रेलेवेंट करना. एक है गलती से घट जाना और एक है विचारपूर्वक घटना- दोनों में अंतर है। यही फर्क थिएटर ऑफ रेलेवेंस और रेलेवेंट थिएटर में है. तो बात है रंगचेतना की समझ और उसके प्रति प्रतिबद्धता की।
धनंजयः मतलब बाकी लोगों के थिएटर में और अपके थिएटर में फर्क है?
मंजुलः देखिए, यही मैं बात कहूँगा कि ध्येय और उद्देश्य होता है। एक है कि मैं मंच पर आकर आनंद लेना चाहता हूँ। अगर ये उद्देश्य है या ये कि मैं अपनी नाट्य संस्था को नंबर वन संगठन बनाना चाहता हूं या मैं एक अभिनेता के तौर पर जीना चाहता हूं या मैं नाट्य निर्देशक के तौर पर जीना चाहता हूं। हर एक के अपने-अपने ध्येय हैं। और मुझसे पहले भी प्रतिबद्ध व्यक्ति हुए हैं, उनकी प्रतिबद्धता क्या चारदीवारी के थियेटर तक है? क्या उनकी प्रतिबद्धता केवल एक अच्छा एक्टर कहलाएं, इसके लिए हैं? क्या उन लेखकों की प्रतिबद्धता ये है कि मैंने एक जीवंत स्ट्रक्चर में नाटक लिख दिया? तो हर किसी की अपनी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं।जैसे लेखक ज्यादातर वाद के शिकार हैं। वो या तो पूंजीवाद में हैं या साम्यवाद में हैं,लेकिन नाट्यवाद में कौन लेखक है? यह बहुत आवश्यक है।. मुझे लगता है कि मेरी प्रतिबद्धता है कि नाटक लोगों के जीवन का हिस्सा बने। और वो तब बनेगा, जब हम दनके जीवन में नाटक को उतारेंगे। मैं एक उदाहरण देता हूं-97-98 में मैंने एक थियेटर ऑफ रेलेवेंस की कार्यशाला की,ऐसी महिलाओं के साथ, जिनके सेल्फ काून्सेप्ट,जिसे कहते हैं स्वयं के अस्तित्व को तार तार कर दिया गया था,ऐसी महिलाएं हमारे समाज में हैं,जिसको हम रेड लाइट एरिया भीबोलते है। अब उन महिलाओं का पूर्वाग्रह कैसे निकाला जाय? उन महिलाओं का ये कि बहुत चुनौतीपूर्ण वर्कशॉप मेरे सामने आया। जब मुझेकरना था कि ...80से 100 महिलाएं थीं,और उनकी आंखों में ये था कि आप बोल वचन अमिताभ बच्चन मत कीजिए। और जो करना है, कर लीजिए, क्योंकि मेरे जैसे बायोलॉजिकल रूप रात के अंधेरे में या दिन के उजाले में भी रोज तार तार करते हैं। मैं उनके सामने बहुत ज्यादा इलेक्ट्रानिक सा कोई और संसाधन का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। अब उनको आप ये बताइए कि कैसे ये निकालेंगे आप कि नहीं जो आपके साथ हुआ, उसमें आपका योगदान कितना था या व्यवस्था ने आपको कितना उस ओर धकेला?अब व्यवस्था को तोड़ने वाला र्कान रंगकर्मी हमारे बीच में है? आप उदाहरण दीजिए। इस व्यवस्था को एक नई दिश्सस उेने वाला कौन लेखक हमारे सामने है?खासकर नाटक कार । अब मैं तमाम बातें कर रहा हमं हिंदुस्तानी रंगप्रक्रिया की। और उनके साथ जो हमने उनके व्यक्तित्व को एक नई दिशा उेने का काम किया।इसीलिए नए मापदंड ...इसीलिए फर्क है।
धनंजयः कंटेंट की जब बात आती है,तो कंटेंट ता आप पकड़ते हैं रेलेवेंट, लेकिन जब रंगशिल्प की बात आती है,तो वो आपकी प्रस्तुति में गौण हो जाती है।
मंजुलः देखिए विषय वस्तु में ही प्रस्तुति करण की शैली है और थियेटर ऑफ रेलेवेंस हमेशा इनोवेशन खोजता है। नयापन खोजता है। विषयवस्तु में ही उसकी प्रस्तुतिकरण की शैली समाहित होती है। और थियेटर ऑफ रेलेवेंस ढर्रे को नहीं नवीनता को खोजता है।उसका मैं एक उदाहरण देता हूँ- आज से 14 साल पहले मैं एक थियेटर ऑफ रेलेवेंस कार्यशाला कर रहा था विदर्भ में। अमरावती जिले का तिबसा तालुका है।वहाँ 60 रंगकर्मी अपने गांव की या कहिए समाज में जो समसयाएं थीं, उन पर नाटक लिख रहे थे। एक ग्रुप ने नाटक लिखा-वो दहेज पर लिखा। कंटेंट सीधा था दहेज नहीं लेंगे,लेकिन उन्होंने प्रस्तुत कैसे किया?!उस गाँव में एक तिकोना पार्क है। पार्क के आसपास बाजार लगा रहता है। तो पूरे तिकरेने पार्क के तीनों ओर लोग खड़े हैं। कलाकारों ने कागज के छोट-छोटे टुकड़े बांटने शुरू किए दर्शकों में। फिर कागज के उन टुकड़ों पर उन्होंने एक एक मुट्ठी राख रखना शुरू किया। फिर लोगों से पूछा,‘आपको ये पता है ये किसकी राख है।?आपने सुबह जो ये अखबार पढ़ा,उसमें दहेज के लिए लड़की को जलाकर मारने की खबर छपी थी, ये उसी लड़की की राख है,और वो मेरी बेटी है। वहां उपस्थित लोगों के रोंगटे खड़े हो गए।रोम...रोम...! अब आप ये बताइए प्रस्तुति की जो ये शैली है,ये नई खोज है कि नहीं।मैं यह मानता हूं कि जैसे दूसरे लोग व्याकरण की बात करते हैं, बहुत सारी गलतफहमियां या पूरी स्पष्ट समझ रंगकमियोंके सामने नहीं होती है। जैसं मंच के बारे में ज्यादातर जोंगों की राय है कि स्टेज,ऊंचा चबूतरा है। जबकि स्टेज वो जगह है, जहां कलाकार क्षड़ा होकरर परफॉर्म करता है। वो आयताकार हो सकता है, गोलाकार हो सकता है। वो ऊँचा हो सकता है, नीचा हो सकता है।जबतक आपको इसकी पूरी समझ नहीं है, आपके पास थियेटर की समग्र दृष्टि नहीं है,तो आप एक ही तरह के मंच में फंस जाते हैं। या एक ही तरह कर काम आप करते हैं।
धनंजयः तो क्या थियेटर के जो मानक हैं मंच को लेकर या शिल्प को लेकर या प्रस्तुतिकरण को लेकर, उसका जो ग्रामर है,उसको आप नहीं मानते? उसे आप खारिज करते हैं आप?
मंजुलः देखिए ग्रामर को खारिज करना और बनाना दोनों बात है।इसको मैं ये कहूंगा कि अपनी आदत, जैसे हमारे व्यवहार में आदत होती है। हमएक ही काम करते काते प्रतिबद्धता के साथ , आदत में बंध जाते हैं। बहुत सारे रंगकमियों को सहूलियत होती है कि वो आयताकार या बंद रंगगृह में काम करते हैं तो अपनी सारी दृष्टि , अपनी सारी ऊर्जा उसी में लगा देते हैं।अब आप इसका जीवन से उदाहरण लीजिए, अगर कुएं में एक मेंढक है,तो वो उसी में जोर जोर से वहां कूदता है, वो पूरी प्रतिबद्धता के साथा काम करता है, लेकिन बाकी दिशाओं में वह क्या काम कर पाता है?मैं बहुत स्पष्ट हूं अपनी जिंदगी में कि मेरा नाटक देखने के बाद जिंदगियां बदले।बाकी रंगकर्मी प्रतिबद्ध हैं कि वो बड़े-बड़े अखबारों में एडवरटिजमेंट दें,हजारों लोग उनका शो देखें,तालियां बजाएं और हजारों का उनका टर्नओवर हो,यह उनका मकसद है।
धनंजयः इसको ऐसे अगर डिफाइन करें कि एक रंगकर्मी है,जो सेल्फ सटिस्फैक्शन के लिए रंगकर्म करता है,और एक आप हैं, जो सेल्फ सटिस्फैक्शन तो अपनी जगह है, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है,जो दर्शक हमारे सामने हैं,वो सटिस्फाइड हों। उनको लगे कि उनकी बात की जा रही है?
मंजुलः मैं तीसरे आयाम की बात कर रहा हूँ के थियेटर की संतुष्टि उससे होती है? क्या थियेटर का मूल जो ध्येय है, वो है संवाद, तो क्या संवाद की प्रक्रिया शुरू करता है? और संवाद की प्रक्रिया शुरू करते हुए क्या वो मानव की तरफ अग्रसर करता है? हाँ, तो उत्तम रंगकर्म है। और थियेटर ऑफ रेलेवेंस उसी प्रक्रियाको कहते हैं।
धनंजयः बढ़िया कहा आपने, मगर अब सवाल उठता है कि नुक्कड़ नाटक को और भी रेलेवेंट बनाने की दिशा में आपने काम किया। नुक्कड़ नाटक ने ही कैसे आपको ज्यादा अट्रैक्ट किया,मंचीय नाटक ने क्यों नहीं?
मंजुलः देखिए थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य पद्धति में ये सारी नाट्य शैलियाँ हैं। बंद गृह का नाटक भी हम उतना ही करते हैं,जितना नुक्कड़ नाटक, उतना ही शैक्षणिक और सामुदायिक नाटक भी करत हैं।लेकिन नुक्कड़ नाटक मेरी खोज नहीं है। यह फोक फॉर्म भी नहीं है। यह खासकर शाषितों का नाटक है।1600 के बाद जब औद्योगिक क्रांति हुई,उसके बाद मजदूरों ने जब अपना हक मांगना शुरू किया,उस वक्त उन्होंने नाट्य तत्वों का प्रयोग अपनी बात कहनेे के लिए किया।और वह बहुत प्रभावी हुआ, इसलिए वह पॉलिटिकल थियेटर अना, जिसको हम कहें बदलाव का थियेटर।
धनंजयः आपने एक संस्था का गठन किया- एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउन्डेशन। अब आपने एक विचार दिया,रंगचेतना दी थियेटर ऑफ रेलेवेंस । थियेटर ऑफ रेलेवेंस को एक संस्था से बाँध कर नहीं रखा जा सकता। थियेटर ऑफ रेलेवेंस पूरे देश का विचार हो सकता है, पूरे देश की संस्थाओं ककी धरा हो सकतर है। तो एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन की भूमिका अब खत्म हो जाती है?
मंजुलः एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन एक लेबोरेटरी है थियेटर ऑफ रेलेवेंस का।मुंबई में उसका अपना एक न्युक्लिया होना , उसका अपना ण्क आकार होना बहुत आवश्यक था 1992 के बाद।तो 92 से 96 तक बहुत ज्यादा एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन के बैनर को लोगों के सामने हम लेकर गए। और समुदाय में, सड़कों पर,स्कूलों में कॉलेजों में प्रेक्षागृह में प्रोसेनियम ऑडिटोरियम में इटीएफ के कलाकारों ने कम से कम हर रोज पांच पांच दस दस प्रस्तुतियां भी की हैं। वो इसलिए था कि एक नाट्य ससंगठन आपके पास आ रहा है। एक देखिए विचार अपने आप में उसका कोई आकार नहीं होता। उसको आकार देने के लिए उक शरीा की आवश्यकता होती है। और उस ढांचे का काम एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन ने किया। और एक रणनीति के तहत वो आराम गृह एअरकंडीशंड ऑडिटोरियम छोड़कर लोगों के बीच जाकर परफॅार्म किया। और लोगों ने बहुत बढ़ियाा रेस्पांस दिया कि लगातार ऐसा हो गया था कि हमारी टहम बैठी हुई है और आज हमारे यहां दस परफार्मेंस है, हमारे यहां पांच परफार्मेंयस है।इस तरह की दृऔर वो मुद्दे भी लोगों के बागे आये। उससे एक और शुरूआत हुई कि नाटक के प्रोडक्शन में या उसके अर्थ में जो गणित होता है कि पहला नाटक जब इटीएफ ने किया वो मानखुर्द में किया। उस वक्त हम सांताक्रुज में रिहर्सल किया करते थे। तो वो जो समुदाय हमें बंलायाए उन्होने पूछा कितना खर्व देना होगा? हमने कहा कि आप आने जाने का पूरी टीम का बस भाड़ा दे दीजिए। तो उसने वो भाड़ा दे दिया। उसके बाद अलग अलग उत्सवों में हमने काम किया। और 2011 में एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन का बैनर हम इतना नहीं उठा रहे हैं,क्योंकि हर संसथा का अपना एक परचम होता है। और परचम टकराये ना इसलिए हमने संसथा को इम्पोज करने के बजाय विचार लेकर लोगों के पास गए। और जब लोगों ने हमारे विचार को अपनाया तो वहाँ अपने आप एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन खड़ा हो रहा है।
धनंजयः बिल्कुल हम इस पर आना चाह रहे थे कि एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन ने रंगसिद्धांत थिएटर ऑफ रेलेवेंस को आगे बढ़ाने का काम किया।अब ये रंग सिद्धोत जो है,वो दूसरी संस्थाओं के सामने है, समाज के सामने है, नाट्य संस्थाओं के सामने है,देश की संस्था हो या विदेश की संस्था हो, उसके सामने प्रस्तुत है, तो दूसरी रंगसंस्थाएं क्या इस रंगसिद्धांत को आगे बढ़ाने में योगदान कर रही हैं?
मंजुलः बिल्कुल सही बात है। जैसे शैक्षणिक संस्थाओं की मैं बात करूं तो शिक्षण के लिए,शिक्षा के लिए नाटक का प्रयोग हो या बच्चों के अपने सहभागिता के लिए उनकी आवाज उठाने के लिए नाटक का इस्तेमाल आज लगता है भारत की हर बच्चों के साथ काम रिने वाली संस्था या स्कूल कर रहा है। अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से। दूसरीजो मैं बात कहूं कि जो सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए नाटक का इस्तेमाल ... जो एक्सपेरिमेंटल थियेटर फाउंडेशन ने राह दिखाई आज वो हर एक सामाजिक काम करने वाली संसथाएं या वो मूवमेंट नाटक का उपयोग कर रहा है। जैसे आप अण्णा का भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन है, उसमें भी नाटक ने अहम भूमिका निभाई।उसी तरह अभी कुछ दिनों पहले ही मुंबई में एक नाट्य थियेटर में यू एन की लाडली मीडिया अवार्ड जो थी लिंग चयन में या जिसको एक आम भाषा में कहें कन्याभ्रूण हत्या पर एक मीडिया अवार्ड है, उसमें भी नाटक ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जो कि थियेटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य पद्धति से लिखा हुआ नाटक है। जिसका नाम है लाडली। उसी तरह से आप नाटक के....जैसे कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में जो नाटक खेला जाता है, पिछले आठ से बारह महीनों में मैं पंजाब के अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों में था,तो उन्होंने नाटक को बहुत प्रखरता से अपनाया।एक सरकारी कॉलेज ने हमारी कार्यशाला का नाम दिया- पहचान, कि हमारी पहचान क्या है?हम क्यों जिएं?हमारे जीने का मकसद क्या हो?उसकी पहल क्या हो?उन प्रक्रियाओं को थिएटर ऑफ रेलेवेंस ने बहुत रूप से आगे बढ़ाया है।एक व्यक्ति ने उस दौरान मुझसे कहा,‘थिएटर से जागरूकता फैलती है,ये तो हमस ब जानते हैं,लेकिन थिएटर के बारे में जागरूकता...!ये थिएटर ऑफ रेलेवेंस फैला रही है।और मुझे लगता है ये रंगकर्म का एक बहुत सुखद मंतव्य है।
धनंजयः
मंजुलः दर्शक आज समर्थन में है।व्यवस्था समर्थन कम देती है।और व्यवस्था जब समर्थन देती है तो अपनी कीमत मांगती है। और वो कीमत थिएटर ऑफ रेलेवेंस के प्रैक्टिशनर को तय करनी है कि हमें व्यवस्था का कितना सपोर्ट चाहिए। देखिए मैं आपको और एक बात बताऊँ, ये जो व्यवस्था है सबको अपने मतलब का बना लेती है।लेकिन हमारे सामने ये चुनौती है कि क्या हम कंजमशन का सामान बन जाएंगे?या थिएटर ऑफ रेलेवेंस अपने मौलिक विचार के साथ आगे बढ़ता रहेगा?मेरे साामने यह भी चुनौती है कि जो मैं मणिपुर के साथियों के साथ कर रहा हूँ,उसे महाराष्ट्र के साथी घर बैठे कैसे देखें?या पंजाब में हो रहा है, तमिलनाडु के रंगकर्मी कैसे देखें?उनका समन्वय कैसे हो?
धनंजय: मंजुल जी एक और जो आपके सामने चुनौती आती होगी,समाज के सामने तो है ही ये चुनौती, जैसे शिक्षा ही हुई-रोजगार पाना शिक्षा का मूल ध्येय हो गया है.शिक्षा इसलिए हासिल करते हैं कि कि कोई न कोई रोजगार मिले.हबढ़िया शिक्षा लेंगे, हायर एजुकेशन लेंगे, तो अच्छी नौकरी मिलेगी.थिएटर जो है, अबतक रोजगार पाने का जरिया नहीं बना है.आमतौर पर यही धारणा है कि थिएटर करना है, तो शौकिया कीजिए,इसमें आपको रोजगार नहीं मिलेगा, अपना परिवार नहीं पाल सकते.इससे आप अपने बच्चों को नहीं पढ़ा सकते.तो ऎसे में थिएटर्अ को आगे बढ़ाने का जो थिएटर ऑफ रेलेवेंस का जो अभियान है,उस अभियान को कितना ब्रेक लगता है?
मंजुल: बिल्कुल नहीं लगता. आजतक तो नहीं लगा.एक स्पष्टता है कि आप किसी करियर को बनाने में पाँच, दस, या पन्द्रह दीजिए.और हम थिएटर ऑफ रेलेवेंस के मंच से कहते हैं कि आप हमें जीवन के पाँच निष्ठावान साल दीजिए.उसके बाद, थिएतर में अपकी दाल-रोटी कोई नहीं रोक सकता.
धनंजय: पैसा कौन देगा? सरकार से लेते नहीं हैं, दर्शक देते नहीं हैं! फिर पैस आएगा कहाँ से?
मंजुल: जैसे मैं अपना उदाहरण दूँ-आप कहेंगे बीस साल में ये अंतर है थिएटर ऑफ रेलेवेंस के पहले और अब मे6 कि थिएटर ऑफ रेलेवेंस जब शुरू हुआ 1992 में,तब एक रंगकर्मी मुझे ऎसा नहीं मिला था, जो ये कह पाए कि मैं थिएटर से ज़िन्दा हूँ!आज ये फर्क हैकि एके रंगकर्मी ये कहता है कि वह थिएटर से ज़िन्दा है!और आप उसके साथ रहके, जीके देख सकते हैं! ये दर्शक जब शामिल होत है तो अपना सबकुछ आप पर न्योछावर कर देता है.और एके बात मैं आपको और बताऊँ कि एक लाख दर्शकों का एक-एक रुपया भी आपके पास आता है तो एक लाख रुपया आपके पास आता है.रंगकर्मी जबतक ये इकॉनमी नहीं संमझेंगे,तबतक उनका सर्वाइवल थिएटर में नहीं है.
धनंजय: मंजुल जी ये बड़ा गहरा सवाल है,इसे इग्नोर नहीं कर सकते कि थिएटर ऑफ रेलेवेंस विचार तो है, बदलाव का माध्यम है ये भी सही है.लेकिन रोजगार के माध्यम में हम देखते हैं कि ठीक है मंजुल भारद्वाज का घर तो चल रहा हैथिएटर ऑफ रेलेवेंस की वजह से,मगर ऎसे कितने लोग हैं जिन्होंने फुलटाइम थिएटर करके रोजगार हासिल किया है!अपने लिए दो वक़्त का भोजन हासिल कर सकते हैं,बच्चों की फीस के लिए रुपए जुटा सकते हैं?और वो कैसे? कहाँ से ? कौन पैसे देगा? मैं वो बिन्दू जानना चाहता हूँ,कि थिएटर ऑफ रेलेवेंस का अर्थशास्त्र क्या है?
मंजुल: आज से बीस साल पहले या कहूँ कि 18 साल पहले, और भी प्रीसाइज करूँ 14 साल पहले 25 रंगकर्मियों का एक समूह विदर्भ में एक नाट्ययात्रा के लिए निकला था. वो नाट्ययात्रा करने के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव जाता था. उसके पास और कोई संसाधन नहीं था.लोग नाटक करने के बाद एक बौद्ध मन्दिर में ठहरे. विदर्भ में कई बौद्ध मन्दिर हैं. तो मन्दिर के लोगों ने पूछा-“ भाई खाना खाओगे? आप हमारे लिए, हमारी समस्याओं को लेकर हमें जागरूक कर रहे हो, आप खाना खाओगे?” तो कलाकारों ने कहा-“ हाँ, दीजिए.” तो उनलोगों ने भाखरी बनाई और सबको खिलाई.अब कालांतर में उसी विदर्भ में उन्हीं कलाकारों को उन गाँववालों ने निश्चित एक धनराशि इकट्ठा की और कलाकारों से कहा कि हम अपनी ज़िन्दगी में से कुछ राशि निकाल कर हर महीने आपके भरण-पोषण के लिए दिया करेंगे. मुझे लगता है कि ये बहुत बढ़िया उदाहरण है और थिएटर के लिए सकारात्मक वातावरण भी. उसी तरह से आप देखिए कि नाशिक का मैं बताऊँ- 1998 में जब हमने प्रशिक्षण दिया और जो साथी वहाँ थिएतर के करीब में आए,वो 266 लोग थे.और आज उनकी संख्या 3 हज़ार के करीब पहुँच गई.और उन्होनें क्या किया हर महीने हर मेम्बर से 10 रुपए का हर मेम्बर से कंट्रीब्यूशन ले रहे हैं.और वो दस रुपए का कंट्रीब्यूशन उनका हर महीने का उनकी आजीविका का , उनके रंगसंगठन का , उनके सामाजिक प्रतिबद्धता का माध्यम है.जिसमें से कि दस लोग जो थिएटर करते हैं, उस पैसे से उनका जीविकोपार्जन चलता है.इसी तरह से मैं ये कहता हूँ कि राज आश्रित थिएटर जबतक आप करते रहेंगे उस थिएटर के अपने पैर, अपनी मौलिकता नहीं होगी.थिएटर ऑफ रेलेवेंस का मकसद या एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउंडेशन का मकसद थिएटर और थिएटर मात्र थिएटर को आगे बढ़ाना है.

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